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कागभुशुण्डि और गरुड़ जी की वार्तालाप
कागभुषुण्डी जी गरुड़ जी से अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाते हुए कहते हैं कि हे गरुड़ जी शिव जी ने मुझे अजगर होने का शाप दिया था जिससे कभी निवृत्ति नहीं होने वाली थी पर गुरु जी की विनती सुन कर शिव जी ने इसे एक हजार जन्म तक सीमित कर दिया। मैं अनेक योनियों में भटकते हुए अन्तिम और हजारवाँ जन्म ब्राह्मण का पाया पर शिव जी की कृपा से मेरा ज्ञान कभी मिटा नहीं। मेरे माता पिता जब कालकलवित हो गए तो राम दर्शन की लालसा में मैं मुनियों के आश्रम में जा जा कर प्रभु के सगुण रूप का निरूपण करने का अनुरोध करते रहा पर किसी ने मेरी अभिलाषा पूरी नहीं की तब मैं लोमष मुनि के आश्रम में चला गया और उनसे सगुण ब्रह्म के निरूपण का अनुरोध किया पर मुनि जी निर्गुण ब्रह्म के निरूपण का उपदेश देने लगे पर मुझे यह मत भाया नहीं। मैं मुनि जी से तर्क वितर्क करने लगा। मुनि जी क्रोधित हो गए और मुझे कौवा होने का शाप दे दिया। मैं मुनि जी के शाप को आनन्द पूर्वक शिरोधार्य करके उड़ चला। हे गरुड़ जी मेरे प्रेम की परीक्षा लेने के लिए प्रभु ने मुनि जी की बुद्धि को फेर दिया था पर जब मैं उड़ चला तो प्रभु ने मुनि जी के सिर से अपनी माया हटा ली और तब मुनि जी को अपनी भूल का अहसास हुआ और मुझे बुला लिया। मैं लौट आया और तब मुनि जी ने मुझे प्रभु श्रीराम के बाल रूप का दर्शन कराया और मुझे राम मंत्र दिया। इसी प्रसंग पर प्रस्तुत है प्रभु कृपा से रचित ये रचना :-----

हे मुनिवर मोहे राम दिखाऊ ।
केहि विधि राम दरश मैं पाऊँ ।।
हे मुनिवर मोहे राम दिखाऊ ।
कह लोमष मुनि सुन द्विजराया ,
निर्गुण ब्रह्म चराचर छाया ,
अनुभव से जेहि जानहिं काऊ ।
हे मुनिवर मोहे राम दिखाऊ ।
सगुन रूप जेहिके मन भावा ,
तेहिके निर्गुन मत का सुहावा ?
तर्क वितर्क करहिं द्विजराऊ ।
हे मुनिवर मोहे राम दिखाऊ ।
तब लोमष मुनि क्रोधित भयऊ ,
कावँ कावँ बायस सम करऊ ,
रे खल जाइ काग तन पाऊ ।
हे मुनिवर मोहे राम दिखाऊ ।
अति प्रसन्न शाप सिरु धारा ,
उड़ि चलो हरषि न सोच विचारा ,
किन्हिं कृपा मो पर मुनिराऊ ।
हे मुनिवर मोहे राम दिखाऊ ।
तब प्रभु आपनु माया खींची ,
भयो लोमष संताप बिशेषी ,
तुरत बुलायउ मुनि खगराऊ ।
हे मुनिवर मोहे राम दिखाऊ ।
राम चरित मुनि खगहिं सुनावा ,
बाल रूप खग हृदय बसावा ,
जनम धन्य पायो खगराऊ ।
हे मुनिवर मोहे राम दिखाऊ ।

रचनाकार
ब्रह्मेश्वर नाथ मिश्र