# एक कप चाय ....!!!
रात का भोजन गले तक ठूंस चुका था और धर्मपत्नी जी किचन की साफ-सफाई कर रही थी! तभी हृदय में चाय पीने की लालसा जाग्रत हुई!
अब ऐसे सीधे सीधे कहने पर तो वो मिलने से रही, तो मैंने भूमिका बाँधनी शुरु की! पहले तो इस आस में उनके आगे-पीछे पेंडुलम की तरह डोला कि वो बिना कहे मेरे मनोभावों को ताड़ जायें और एक आज्ञाकारी पत्नी की तरह खुद ही मुझे रजाई में जाने को कहकर पीछे स्वयं चाय लेकर हाजिर हो जायें!
पर हाय!
ऐसा लगा जैसे उन्होंने मेरी उम्मीद से कुछ ज्यादा ही ताड़ लिया--
"भरपेट भोजन हो गया ना?"
"जी, बिल्कुल!"
"मन और पेट दोनों भर गया?"
"जी, भला ये भी कोई कहने की बात है!"
"तो फिर फालतू में मेरे आगे-पीछे काहें डोल रहे हैं?"
"कुछ नहीं, बस प्यार आ रहा है तुम पर!"
...
अब ऐसे सीधे सीधे कहने पर तो वो मिलने से रही, तो मैंने भूमिका बाँधनी शुरु की! पहले तो इस आस में उनके आगे-पीछे पेंडुलम की तरह डोला कि वो बिना कहे मेरे मनोभावों को ताड़ जायें और एक आज्ञाकारी पत्नी की तरह खुद ही मुझे रजाई में जाने को कहकर पीछे स्वयं चाय लेकर हाजिर हो जायें!
पर हाय!
ऐसा लगा जैसे उन्होंने मेरी उम्मीद से कुछ ज्यादा ही ताड़ लिया--
"भरपेट भोजन हो गया ना?"
"जी, बिल्कुल!"
"मन और पेट दोनों भर गया?"
"जी, भला ये भी कोई कहने की बात है!"
"तो फिर फालतू में मेरे आगे-पीछे काहें डोल रहे हैं?"
"कुछ नहीं, बस प्यार आ रहा है तुम पर!"
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