...

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सफऱ दर सफर
था ये धरती से आसमा तक का सफर!
न पूछो कैसे तय किया गजब का सफर!
कभी पैदल चले कभी ठोकर खा कर गिरे,
फिर भी न पूरा हुआ बुलंदी का सफर!
चाहत थी खुद को आसमां तक ले जाने की,
लेकिन था न कोई साथ, रहा तन्हा ही मेरा सफर!
पहचान चेहरों कि करने चले थे हम,
देख कर हैरान रह गए नकाबदारों का सफर!
हम भी कर रहे थे खुद कि पहचान का सफर!
और वो भी कर रहे थे गुनाहों का सफर!
मेहनत दोनों कि बराबर थी यहाँ, अंतर सिर्फ कर्मो का था!
मगर दोनों ही करते रहे याद खुदा को सफर दर सफर!
एक एक सीढ़ी चढ़ने के लिए खुद को तराशना पड़ता है!
रहता नहीं है आम ऊंचाइयों का सफर!
हाथ मिला कर लोग पैरों से लंगड़ियाँ दिया करते हैं!
वो करते हैं ऊंचाई पर बैठे शख्स को जमीन पर लाने का सफर!
कुछ लोग भी बड़े नासमझ होते हैं, जो सच बोल कर नज़रों मे आ जाते हैं!
उन्हें खबर नहीं कि अब यहाँ, झूठ कर रहा है
अच्छाईयों का सफर!

© sangeeta ki diary