सर्दियों कि वो पूरानी रातें
सर्दियों कि वो पूरानी रातें, जब सारे इकठ्ठे बैठ कर खाना खाया करते थे। चूल्हे पर रोटी सिक रही होती थी और आवाज़ लगती थी "अरे ज़रा गर्म रोटी लाना तो यह ठंडी हो गई"फिर इकठ्ठा बैठ कर वो सब का बातें करना। मोहल्ले में किसी के घर कोई पकवान बना हो तो वो सब के घर आना, और बच्चों कि तो मानो ईद हो जाती थी जब एक तसले में आग जला कर पलंग के बीच रखी जाती थी। बड़े लोग आराम से बैठ कर अपनी बाते करते थे और बच्चे बिस्तरो में उछल कूद करके मौज करते थे। फिर रात को देर-देर तक जाग कर मुंगफली का ज़ायका लेना और रात में उठ कर उनके छिलकों पर चल कर जो कर-कर कि आवाज़ आती थी उसका तो मानो मज़ा ही और था।
अब न जाने क्यूं कहा खो गया वो वक्त कोई मोबाइल में बिज़ी है, तो कोई पढ़ाई, कोई दफ्तर में।
© Zakiya Kausar
अब न जाने क्यूं कहा खो गया वो वक्त कोई मोबाइल में बिज़ी है, तो कोई पढ़ाई, कोई दफ्तर में।
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