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Kamasutra
इस प्रकार करना चाहिए जिससे ये एक-दूसरे के बाधक न हों। कौटिल्य का कहना है कि धर्म, अर्थ, काम-त्रिवर्ग का सन्तुलित उपभोग करना चाहिए। पारमार्थिक दृष्टि से धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्ग का अन्तिम लक्ष्य अभ्युदय एवं निःश्रेयस है। आचार्य वात्स्यायन का कहना है कि "धर्म परमार्थ का साधन है और धर्म का बोधक शास्त्र धर्मशास्त्र है। अर्थसिद्धि के लिए तरह-तरह के उपाय करने पड़ते हैं। उन उपायों का प्रतिपादक शास्त्र अर्थशास्त्र है। सम्भोग सुख प्राप्त करने के लिए कामशास्त्र के ज्ञान की आवश्यकता है। इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तथा लोक-जीवन को सुव्यवस्थित एवं सुखमय बनाने तथा जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने के लिए ब्रह्मा ने धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और कामशास्त्र- तीन शास्त्रों का प्रतिपादन किया। इनमें धर्मशास्त्र में धर्म का विवेचन, अर्थशास्त्र में अर्थ का विवेचन और कामशास्त्र में काम का विवेचन किया गया है"।
धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्ग में काम की प्रधानता है, क्योंकि यह समस्त प्राणिवर्ग संवेद्य तथा लोकस्पृहणीय है और यह काम समस्त सृष्टि का बीज है। काम एक मानस क्रिया या मानसिक व्यापार है। काम संकल्पयोनि एवं रागात्मिका वृत्ति का कारण है, काम एक कला है, पुरुषार्थ है। कला के रूप में वह लोकसंपूजित है। मन्मथ, मदन, कन्दर्प, मार, पञ्चसायक, कुसुमसायक, काम, अनङ्ग आदि काम के अनेक नाम हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि कामशास्त्र में अश्लीलता का वर्णन अधिक है, इससे दुराचार का प्रचार होता है। परायी स्त्री या अविवाहिता कन्या को कैसे फुसलाया जाता है, वेश्याओं द्वारा नागरकों से धन कैसे ऐंठा जाता है, कामोपभोग और आलिङ्गनादि क्रियाएँ कैसे की जाती हैं? इत्यादि विषयों के प्रतिपादन में अश्लीलता का भद्दा रूप दिखायी देता है। इसके प्रतिपादन से व्यभिचार की प्रवृत्ति बढ़ती है, दुराचार का प्रचार होता है। किन्तु कामशास्त्र में उनका प्रतिपादन व्यभिचार अथवा दुराचार के प्रचार के लिए नहीं, बल्कि उनकी बारीकियों को समझने तथा उससे बचने के विचार से किया गया है। इनके अतिरिक्त शास्त्र में अच्छी-बुरी सभी बातों का विवेचन होता है, किन्तु देश, काल, परिस्थिति के अनुसार उचित-अनुचित, ग्राह्य अग्राह्य का विचार कर अच्छी बातों को अपनाना चाहिए। केवल शास्त्र पढ़कर आँखें बन्दकर उन पर व्यवहार करना उचित नहीं। यही शास्त्राध्ययन का प्रयोजन है।