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~•(बाल दिवस पर हमने लगाई दुकान)•~
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*जिन बच्चों को दुकान लगानी है, वो अपना नाम प्रिंसिपल ऑफिस में दे देंगे*

स्कूल की असेंबली में ये उद्घोषणा सुन मैं बहुत खुश थी।

मम्मी इस साल हम भी दुकान लगाएंगे,

" किस चीज का लगाए" ?

" खाने का लगाए क्या"?

" नही, अभी बहुत छोटे हो तुम लोग, गेम का लगाओ"

"अच्छा ठीक है"

साल था 2015, हर बार की तरह इस साल भी बाल मेला लगने वाला था। पर इस बार पिछली बार की तरह अपने स्कूल में नही, दूसरे स्कूल में लगने वाला था।
बीना किसी हिचकिचाहट के, अत्यंत प्रसन्न होकर हम अपनी छोटी सी दुकान जो लगाने जा रहे थे।
अपने गुड्डा गुडिया के छोटे से खेल से कहीं आगे आ चुके थे।
( इसमे "हम" मैं और मेरा भाई थे)


जल्द ही सुनिश्चित कर, हमने स्कूल में अपना नाम दे दिया था।
और बाल दिवस के एक हफ्ते भर पहले से ही तैयारी शुरू कर दी थी। पढ़ाई लिखाई छोड़, बस डट गए क्या करेंगे कैसे करेंगे।

और हमारी उत्सुकता अपनी चरम सीमा पर थी।
हमने एक दिन पहले गेम सुनिश्चित किया।
उपहार में क्या देंगे🤔 जीतने वालो को।

स्टिकर्स ले लेते हैं, बच्चों को वो काफी पसंद भी होता है।

"मम्मी, तुम कब आओगी?"

" घर का काम निपटा के , दोपहर के 12 बजे तक"

" अच्छा मम्मी पर जल्द ही आना"

सारी तैयारी हो चुकी थी, और हम सुबह 6 बजे के करीब घर से निकल चुके थे।

और अपने स्कूल पहुंचने के बाद , सभी के साथ दूसरे स्कूल चले गए थे।

हम लोगो को मेला के एक कोने में दुकान अपना समान जमाने के लिए मिल गया था।

हम खुश होकर, सोच रहे थे जब चीफ गेस्ट आएंगे तो उनको गेम कैसे खिलाएंगे।

अभी उद्घाटन में वक्त था, मेला कुछ 10 बजे के करीब शुरू होने वाला था।

हमको अपने चुने गेम में बहुत विश्वास था कि सब इसे खेलने जरूर आएंगे।
और दाम भी तो बहुत कम ही था, मात्र 10 रुपय में ।

हमने दो गेम रखे थे, दोनो ही किस्मत पर आधारित थे।

पहले में दो मेढ़क के बीच राजा को चुनना था,
और दूसरे में चार गोटियों के बीच दो में लगे स्टिकर।

उद्घाटन हुआ चीफ गेस्ट आए, सारी दुकानों का दौरा कर, हमारे पास।
हमारे साथ 5 जूनियर्स का एक और ग्रुप था, जिसने गेम और खाने दोनो की दुकान एक साथ लगाई थी।

हमारी आंखे, खुशी से चमक उठी थी, पहली बोनी जो होने वाली थी।
चीफ गेस्ट ने बगल से झाल मूडी खाई, मिठाइयां खाई।

और हमारी तरफ देखके मुस्कुराए, हमारी आंखे उम्मीद से भर चुकी थी।
और तभी एक ने कहा, चलिए सर आगे चलते हैं, इधर तो सिर्फ गेम है।

"हां हां, गेम क्या ही खेलेंगे, कुछ खाने का देखते हैं",

हमारी आंखे निराशा से नीचे झुक गई, जैसे किसी बच्चे को चॉकलेट का लालच दे उसे छल लिया गया हो।

और मन में खयाल आया, कही गलत चीज की दुकान तो नही लगा लिए।

कोई बात नही, बच्चे तो आएंगे ही, हमने ढाडस बांधा।

एक कक्षा की मित्र दिखी, ये तो जरूर खेलेगी।

पर उसने भी देखा और मुंह घुमाकर दूर चली गई।

भीड़ आ गई, एक बार मन में फिर से उमंग आई और हम इंतजार करने लगे।

बगल में झाल मूडी लेने के लिए भीड़ लगी थी पर, हमारी दुकान खाली।

मेरी हिंदी की शिक्षिका, निकली। वह अपनी भतीजी के साथ आई हुई थी।

"बुआ हमको गेम खेलना है"

"भक्क, गेम में रुपया बर्बाद करने से अच्छा , तुम कुछ खा लो"

अपने प्रिय शिक्षक के मुंह से ये बात , सुनकर मानो मेरे मन में कुछ कचोट सा गया था।
पर था तो सच ही...
हम बहुत निराश हो चुके थे, शायद अब हमको, पूरा समान वापस ऐसे ही घर ले जाना पड़ेगा। इससे अच्छा होता हम दुकान लगाते ही ना।

मम्मी का फोन आता है, ( छोटा वाला फोन उन्होंने हमको दिया था)

" बेटा दुकान कैसी चला रही है, कुछ और लाना है तो बोल दो"

"खत्म हो गया उपहार का समान तो बोल दो हम ले आएंगे"

रुआशा सा मुंह बनाके, " मम्मी जाने दो, कोई भी गेम नही खेला "

"अरे ऐसे कैसे, कोई बात नही जाने दो"।

वक्त बीतता गया, मुट्ठी भर के करीब लोग ही शायद हमारा खेल खेलने आए थे।

वादे के अनुसार मम्मी बारा या एक के करीब आ गई थी।

उनको देख हमारे, मन में एक नई उमंग आ गई थी।
जैसे किसी डूबते व्यक्ति को तिनके का सहारा,
या मानो कोई प्यासे को भरी गर्मी मे पानी की बूंदे।

मम्मी हमारी दुकान में आने से पहले मेला घूम चुकी थी। और अपनी पशिंदा चीजे भी खा चुकी थी।

मम्मी के आते ही कुछ ऐसा हुआ, जैसे मानो कोई जादू वो अपने साथ लाई हो।
उन्होंने हमारे निराश चेहरे की ओर देखा, और अपने साथ लाई पानी की बॉटल थमा दी, साथ में खरीदी हुई भेल भी।

"जाओ थोड़ा घूमके आओ, हम है यहां पर"।

"पर मम्मी मन नही मेरा"

"जाओ हम कह रहे न, तुम इतना चिंता क्यूं करती हो"

"नही होगा कुछ तो वापस चल जाएंगे, दुकान लगानी थी तुमको, तुमने लगाली"

बेमन मैं वहां से चली गई....

वापस लौटने पर देखा तो काफी भीड़ जमा थी,
मैने मन में सोचा बगल वाली में होगा।
पर पास जाकर देखा तो , मेरी ही दुकान में सब खेलने आ रहे थे।
अपनी वाक्य पटुता के कारण, मम्मी ने काफी भीड़ इक्कठा कर ली थी।

सब उत्सुक थे उस गेम को खेलने के लिए, बच्चे तो बहुत ज्यादा।

"दीदी आपका गेम तो बड़ा अच्छा है, और ये स्टिकर्स भी।"

"मुझको ये जीतना है, मैं जब जीतूंगी, तो ये परी वाला लूंगी"

"हां बेटा जो लेना हो ले लेना, मम्मी ने कहा"।

मै और मेरा भाई बहुत खुश थे। हमको भीड़ देख कर,और उसमे गेम खिलाकर बहुत मजा आया।

बगल वाली लड़कियों ने कहा,

"वाह, दीदी आंटी के आते ही आपकी दुकान तो चलने लगी"

"हां, इसके पहले तो कोई भी गेम खेलने नही आ रहा था"।

मै मंद मंद मुस्कुराने लगी।😌

देखते ही देखते, सारे स्टिकर्स खतम हो गए और मम्मी के लाए हुए, बाद वाले उपहार भी। जैसे चिप्स , मटर, पेन इत्यादि।

अब दुकान समेटने का वक्त आ गया था।

हम मम्मी के साथ ही घर की ओर चल दिए।

" 20,30 , 50 ,100 ,200, 250" मम्मी हमारा तो बहुत फायदा हो गया ।

हमने लागत से कुछ 150 रुपय कमा लिए थे।

और बहुत खुश भी थे😌

मम्मी तुम नहीं आती तो शायद , इतना मजा कभी नही आता।

"हां बेटा मजा तो बहुत आया, चलो अब सो जाओ दोनो थक गए होगे"।

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कुछ इस तरह हमने अपनी पहली और आखिरी दुकान लगाई थी। वो साल शायद ही मै कभी भूल पाऊं। हमेशा की तरह इस बार भी मम्मी एक फरिश्ते की तरह आई थी, और मुझे संभाला था।

कही न कही , सकारात्मकता मैने मां से ही सीखा है और उस पल में हो रहे चलचित्र को जीना, बजाय भविष्य की चिंता किए।

बहुत साल बाद , यह वक्त फिर से जिया है, एक मित्र के ध्यान दिलाने पर की, कल "बाल दिवस" है।

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