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निंदा करना
निंदा करना कुछ लोगों की जमा पूंजी होती है। जो बड़ा लंबा-चौड़ा व्यापार फैलाती हैं,वे अपनी पूंजी से।

कई लोगों की ‘रिस्पेक्टेबिलिटी' (प्रतिष्ठा) ही दूसरों की कलंक-कथाओं के पारायण पर आधारित की जाती है,

आप उनके पास बैठिए और बातें सुन लीजिए, ‘बड़ा खराब जमाना गया अब तो। क्या तुमने सुना? फलां...और अमुक...।'

अपने चरित्र पर आंख डालकर देखने की उन्हें फुरसत नहीं होती। चेख़व की एक वही कहानी याद रही है।

एक स्त्री किसी सहेली के पति की निंदा अपने पति से कर रही थी। वह बड़ा ही बेरहमी से दगाबाज एक आदमी था।

वह बहुत बेईमानी से पैसा कमाता था। वो कहती है कि मैं उस सहेली की जगह होती तो ऐसे पति देव को त्याग देती।

फिर तब उसका पति उसके सामने एक रहस्य खोलता है कि वह स्वयं बेईमानी से इतना पैसा कैसे और कहा से लाता था।

सुनकर वह स्त्री स्तब्ध रह जाती और फिर सोचती है.?

क्या उसने पति को त्याग दिया? जी हां, वह दूसरे कमरे में चली गई।

कभी-कभी ऐसा भी तो होता है, ना कि हम में जो करने की क्षमता नहीं है, वह यदि कोई करता है तो हमारी भावनाओं को ठेस पहुँचाता है।

हम में हीनता और ग्लानि आती है। तब हम उसकी निंदा करके उससे अपने को अच्छा समझकर तुष्ट हो जाते है।