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नया सफ़र
भीड़ भरी मेट्रो में भी मेरे माथे पे ज़रा शिकन नहीं थी बल्कि खुशी से चेहरा दमक रहा था।हो भी क्यों ना आखिर बड़ी मुश्किल से और बहुत मशक्कत के बाद दीदी से मिलने का प्रयास सफ़ल होता नजर आ रहा था।
6 महीने हो गए उनसे मिले।सोच के ही मन उदास हो जाता है।माँ के बाद वही तो मेरी सब कुछ हैं।लेकिन ये नौकरी एक पल फ़ुरसत का नहीं देती।दीदी याद आते ही चेहरा खिल उठता है और उनका प्यार भरा उल्हाना याद आता है,"अनु,शादी कब करेगी,उम्र निकल रही है"और मेरा बस मुस्कुरा के रह जाना।
इस स्टेशन पर मुझे उतर कर दूसरी मेट्रो लेनी थी।
इस बड़े से स्टेशन पे भीड़ का रेला एक दूसरे से टकराता सा बढे जा रहा था।मैं भी इसमें शामिल हुई तेज़ कदमों से बढ़ने लगी।सहसा लगा मुझे किसी ने पुकारा...ठिठक के रुक गई और आवाज़ की दिशा में आँखे घूम गई,
कुछ पल तो कोई परिचित चेहरा भीड़ में खोज नहीं पाई..घूमती निगाह तभी एक चेहरे पर रुकी और बस रुक गई।उसने ज़ोर से मेरा नामपुकारा,"अनु"!
"अमित".....हाँ ,अमित ही तो है,उसकी आवाज़ सुन लगा जैसे...