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नया सफ़र
भीड़ भरी मेट्रो में भी मेरे माथे पे ज़रा शिकन नहीं थी बल्कि खुशी से चेहरा दमक रहा था।हो भी क्यों ना आखिर बड़ी मुश्किल से और बहुत मशक्कत के बाद दीदी से मिलने का प्रयास सफ़ल होता नजर आ रहा था।
6 महीने हो गए उनसे मिले।सोच के ही मन उदास हो जाता है।माँ के बाद वही तो मेरी सब कुछ हैं।लेकिन ये नौकरी एक पल फ़ुरसत का नहीं देती।दीदी याद आते ही चेहरा खिल उठता है और उनका प्यार भरा उल्हाना याद आता है,"अनु,शादी कब करेगी,उम्र निकल रही है"और मेरा बस मुस्कुरा के रह जाना।
इस स्टेशन पर मुझे उतर कर दूसरी मेट्रो लेनी थी।
इस बड़े से स्टेशन पे भीड़ का रेला एक दूसरे से टकराता सा बढे जा रहा था।मैं भी इसमें शामिल हुई तेज़ कदमों से बढ़ने लगी।सहसा लगा मुझे किसी ने पुकारा...ठिठक के रुक गई और आवाज़ की दिशा में आँखे घूम गई,
कुछ पल तो कोई परिचित चेहरा भीड़ में खोज नहीं पाई..घूमती निगाह तभी एक चेहरे पर रुकी और बस रुक गई।उसने ज़ोर से मेरा नामपुकारा,"अनु"!
"अमित".....हाँ ,अमित ही तो है,उसकी आवाज़ सुन लगा जैसे बरसों से तरसते कानों की प्रतीक्षा को विराम लगा!अचानक मुझे लगा आस पास सब ठहर गया ,मेरा दिल एक संगीत की लय पर धड़कने लगा और तन कम्पन से जैसे सुन्न हो गयाआँखो में खुशी की चमक भर कर मैं लगभग भागती सी उसके पास पहुँची।
हर्ष मिश्रित आश्चर्य से जैसे शब्द ही गुम हुए।अमित का भी शायद यही हाल था।आंखे नम व चेहरा खुशी से लाल। "अनु",कैसी हो!तुम यहाँ दिल्ली में? उसने ही बात शुरू की।
मैं...अच्छी हूँ मैंने अपलक उसे देखते हुए कहा।यहीं नौकरी करती हूँ।होस्टल में रहती हूँ।"अमित"तुम थे कहाँ,हो कहाँ?कहाँ गायब हो गए थे यार??मैंने सवालों की झड़ी लगा दी ,जो जाने कब से मुझे रोज़ सताते थे।
उसने सामने कॉफी हाउस की ओर इशारा करते कहा आओ बैठ के इत्मीनान से बातें करेंगे..।मैं उस पल अपना गंतव्य आदि सब दरकिनार कर बस यंत्रवत सी अमित के पीछे चल दी।
अमित यूँ अचानक मुझे ऐसे मिलेगा मैंने कभी नहीं सोचा था।अतीत के दृश्य मानसपटल पर घूमने लगे जैसे सालों पुरानी नहीं कल की बात हो.....पुणे में पोस्ट ग्रेजुएशन के आख़री दिनों में एक सुबह सो के उठी तो मुझ पर गाज़ सी गिरी अमित मेरा सबसे करीबी दोस्त..दोस्त से बहुत ज़्यादा जाने कहाँ चला गया था।सब अधूरा छोड़ के..बिन बताये..बिन मिले।कितना प्रयास किया उसकी ख़बर निकालने का..पर,सब व्यर्थ।कितना रो-रो के मैंने वो वक़्त गुज़रा ,बुरी - बुरी आशंकायें दिलोदिमाग पर छाई रहती।
कहते हैं ना,वक़्त बड़े से बड़ा घाव भी भर देता है।मैं भी ज़िंदगी का साथ निभाती ,जीने लगी थी।फ़िर भी अमित कभी मेरे अवचेतन मन से नहीं जा पाया था और आज ये मुलाकात एक सुखदसपना सी लग रही थी।
"ऐ अनु", उसने पुकारा तो मैं सोच से बाहर आई और मुस्कुरा उठी।जाने कब से वो मुझे निहार रहा था।
और फ़िर मेरा बरसों से बंद शिकायतों का पुलिंदा खुल गया।कहाँ थे? क्यों गए ऐसे? एक पल नहीं सोचा मेरे बारे में? हुआ क्या था?जानते भी हो मुझ पर क्या गुज़री?मैं बोले जा रही थी और वो मुझे धीमी मुस्कान के साथ देखे जा रहा था..सहसा उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया ।मेरे शब्द वहीं थम गए जैसे झटका लगा हो.. उस छुअन ने सब शिकवे- शिकायत पिघला दिए।
अब बोलने की बारी अमित की थी।बोला,अनु,एक अनहोनी हो गई थी ।उस रात अचानक मेरे चाचा मुझे बिन बताये ले गए।रास्ते में पता लगा मेरे माता- पिता का दुर्घटना में देहांत हो गया।तुम आगे का समझ सकती हो।मेरी दुनिया ही मानो खत्म हो गई ।कई महीने लग गए खुद को संभालने में।फ़िर मैंने खुद को पापा के कारोबार में पूरी तरह डुबो दिया ।और आज एक सफ़ल कारोबारी बन चुका हूँ।
"अनु",तुम मुझसे दूर हो के भी कभी दूर न थी।तुम मेरे मन में, मेरे ख्यालों में,मेरे सुख में,मेरे दुख में,मेरे हँसने में-रोने में..हर अहसास में मेरे साथ थी।ईश्वर ने तुमसे मिला के मेरी सारी मन्नतें पूरी कर दी।अब एक पल भी व्यर्थ नहीं गवाना मुझे...
"अनु"...उसने मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा।' मेरी जीवन- संगिनी बनोगी?'
मेरी नम आँखो और गहराती मुस्कान ने शब्दों की कमी पूरी कर दी।बहते आँसू के बीच मेरी मुस्कान ने मूक सहमति की मोहर लगा दी ।क्या पता था आज का ये सफ़र मुझे मेरे जीवन के नए सफ़र की ओर ले जायेगा।

© दीp