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क्या न्यायालय को न्याय मिला है?
न्यायालय एक ऐसी संस्था जो नागरिकों को न्याय दिलाता है| यह सामाजिक बेड़ियों, झगड़े , आपसी मतभेद और द्वेष जो लोगों के बीच होते हैं न्यायालय उन सभी अवरोध को प्रेम और कानून के अनुसार हटाता है और उचित न्याय दिलाता है | हर नागरिक को न्यायालय के न्याय और आदेश को मानना पड़ता है क्योंकि वह तर्कसंगत और दूसरों के भलाई के लिए होता है| लेकिन, सबसे दुखद बात यह है कि आज यह संस्था खुद कई जकड़नो में बंध चुका है| जहां न्याय की देवी वास करती है उस जगह इन अवगुणों का होना हमारे लिए लज्जाजनक बात है और न्याय की देवी का अपमान है| देवी के नेत्रों में लगी पट्टी का कुछ लोग अनुचित लाभ उठा रहे हैं।  अतः अब हमें न्याय की देवी से आग्रह करना होगा कि वे अपने नेत्र खोले और पुनः इस पवित्र संस्था के गरिमा को वापस ला दे | आज प्रश्न यह है कि जो न्यायालय दूसरों को न्याय दिलाता है,  क्या उसे खुद न्याय मिला है ?

न्यायालय में न्याय देने वाले न्यायधीश अब अपनी असली ऊर्जा, कुशलता और योग्यता को शनैः-शनैः खोते जा रहे हैं। सबसे बड़ी गलती उन्होंने यह कि की अपनी मातृभाषा को छोड़कर एक विदेशी भाषा को न्याय का माध्यम बनाया जो कि निसंदेह हमारे न्यायालय के साथ सबसे बड़ा छल और अन्याय है। ऐसा कर हमने तो न्याय की देवी के मुख को बांध दिया है । दूसरी सबसे बड़ी गलती उन्होंने यह की कि वे अपने आप को भगवान मानने लगे वह जब चाहे कोर्ट डिसमिस्ड कर देते और स्वीक्षा अनुसार न्यायालय चलाते जिसका दुष्परिणाम उन्हें तो नहीं परंतु लाखों वकीलों को सहना पड़ रहा है । उनकी तीसरी गलती जो बढ़ते समय के साथ अपना विकराल रूप लेते जा रही है। वे कम केस सुनते है व ये अवगुण कोरोना के बाद और ऊंचे स्तर पर बढ़ता जा रहा है ।चलिये कोरोना काल मे कम केस सुनना इसे मानते हैं, लेकिन वर्तमान स्थिति और ज्यादा बदतर होते जा रही है। यहां क्लाइंट वकीलों की नींद छीनते जा रहे हैं और वहां न्यायधीश आराम से सोते , जागते और खाते हैं।

एक और सबसे बड़ा जकड़न बाल मजदूरी है । जहां न्यायालय एक ओर बाल मजदूरी के विरुद्ध कानून बना रहा है तो वहीं उसी के छाया में रह रहे फुटपाथ वाले बच्चे मजदूरी कर रहे हैं । यानी यह कथन न्यायालय के लिए भी है-" पहले अपना विकास , फिर सबका विकास"।

इस अवगुण अर्थात न्यायालय में हो रहे अवगुण का गवाह मैं हूं। एक बार मैं 'पटना कोर्ट' मे जगह 'बार काउंसिल' गया था तो वहां की स्थिति देखकर हैरान था। सामने न्यायालय है और बार काउंसिल के पास बच्चे करीब 9 से 12 वर्ष तक के बच्चे काम कर रहे थे । उनका काम कोई छोटा-मोटा काम नहीं था। वह भारी भरकम काम था , जिसे वे भोले बच्चे अपने कोमल , नाजुक हाथ से कर रहे थे ।उनका शरीर कुपोषित था , उनकी छाती की हड्डियां दिखाई दे रही थी । उन्हे खाना तो मिलता ही होगा, लेकिन क्या वह काफी है?
मैंने लगभग 10 वर्ष के बच्चे को चाय बनाते देखा और एक 9 या 11 बरस के बीच के बालक को चार बड़े बाल्टी में पानी धोते देखा । वह दो दुकान के पास रुका और खुद दो- दो बाल्टी उतारा जो उस आयु के बच्चे के लिए बहुत भारी कार्य है ।वहां दुकान का मालिक भी था जिसे ना तो गुटका थूकने से फुर्सत थी और ना गालियां बकने से ।उसने एक बच्चे से रूखे वाक्य में कहा कि जल्दी चाय बना रंगीन शर्ट वाले साहब को दे दे और जब थोड़ा देर में खाना बनेगा तो खाना मिल जाएगा । मुझे उस मालिक से ज्यादा गुस्सा वहां सेठ साहब जैसे चाय पी रहे लोगों पर आया , अधिकांश तो वहां वकील थे- पढ़े-लिखे विद्वान जो न्यायालय के अंदर न्याय की बात करते हैं लेकिन बाहर आते ही दुराचारी और अत्याचारी बन जाते हैं।
एक आदमी वहां सेठ साहब जैसा बैठ अपने पेट पर हाथ फिराकर कहता है- "ऐ! छोटू जरा मस्त चाय लाओ रे ।"थोड़े देर बाद जब बच्चा उससे चाय पीने का पैसा वसूलने जाता है तो उसी के जैसे कुछ लोगों इसे अच्छा अवसर समझ उन मासूम बच्चे को फटकार दे और फिर मालिक को पैसा देकर चले जाते। मैं जहां खड़ा था उसी के दो कदम दूर बीछौना और चादर था और दोनों के हालत पस्त थे ।थोड़ी देर बाद वहां एक लगभग 12 वर्ष का लड़का आया और बिछाना समेटने लगा । मैं उसके भंगिमा को निहार रहा था -उसके मुंह में कोई चमक नहीं था, मानो उसकी अंतरात्मा दुखी थी बस एक प्राण होकर निष्प्राण था ।
मैंने उससे पूछा -"क्या तुम यहां सोते हो?"
उसने हां कहा।
फिर मैंने पूछा-" क्या तुम पढ़ते हो?" उसका जवाब नहीं था ।
मैंने एक और आखरी प्रश्न उससे किया-" क्या तुम्हें पढ़ना चाहते हो?"
वह थोड़ा देर मुझे देखता रहा और फिर भरे मन से कहा-"हां"
जिस प्रकार उसने मुझे देखा मेरा तत्क्षण कुछ कदम उठाने का मन किया ।लेकिन मैं इतना सामर्थ्यवान नहीं। जो सामर्थ्यवान है वही कुछ नहीं कर पा रहा तो मैं तक्षण क्या कर सकता हूं। उसकी वैसी स्थिति सबकुछ जाहिर कर रही थी ।आखिर कैसी दशा हो चुकी है- न्यायालय की। मैं बस ऊपर "हाईकोर्ट " लिखे बोर्ड को देखता जा रहा था।
© श्रीहरि