...

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मैं बकवास लिख रहा हूँ...
भाग -1

मैं लिख रहा हूँ जिन पर कविता
उनकी बात तक नहीं करता कोई
तो बता तू पहले ही
कुछ खास नहीं लिख रहा
बात हैं सुरेश चमार की
उसकी बीबी मुनिया
और उन दोनों के चार की
दिन था देशबन्दी का तीसरा
जब हाथ मे लिए सौ ग्राम दाल
वो फूटे सिर घर आया
वजह -खाकी आँखो का बराबर न होना
डंडे अक्सर फटेहालों पर तेज बरसती हैं
खैर! मालिक-मालिक, बाप-भैया करके
गुजर गया एक और सप्ताह
पता चला 'प्रधान ' ने भेजें हैं पैसे
"तेरे पास ये कागज नहीं, वो कागज नहीं
अपना पांच सौ निकलोगे कैसे? "
पूरा दिन 'रूल इज रुल ' पर सुनता रहा
साहेब जी का भाषन
पर शाम को लौटा आखिर मुँह लटकाये
कुछ नया नहीं इसमें, ऐसा होता रहता है
निराशा तो जैसे एक गरीब का छाया हो
साथ चलती ही है सफर पूरा होने तक !