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कब छंटेगा य़ह कोहरा
सफ़ेद कोहरे की चादर में लिपटा ये गार्डन निहार रहा हो जैसे ख़ामोशी से और याद कर रहा हो उस चहलकदमी और उन आवाज़ों को जिन्हें चुपचाप सुना करते थे य़ह वृक्षों के तने फूल पौधे और सभी पत्ते। वो हँसी ठिठोली और कुछ बुज़ुर्गों की बातें,वो रौनक और वो सारी आहट कभी-कभी फ़ुटबॉल मैच बच्चों का तो कभी बैडमिंटन खेलती हुई सी छोटी बच्ची। सर्दी के कहर से घरों में बंद खिड़कियों से निहारते हुए इस कोहरे को देख जैसे बतियाते हैं। जाने कब जाएगी ये ठण्ड और सड़कों पर पसरा ये सन्नाटा फ़िर से गार्डन की बहार किसी रोज़ लौट आएगी।
इस सन्नाटे में फुटपाथ पर इस भयंकर सर्दी और कोहरे की आगोश में ना जाने कितनी रूहें एक टक टकटकी लगाए फटे कंबल से दो चमकती हुई सी निगाहें इस इंतज़ार में कि कब छंटेगा ये कोहरा और सूरज निकलेगा और उन्हें कुछ राहत मिलेगी। सोचते ही मन में जब य़ह तसवीरें उभरती हैं ज़हन में तो य़ह मंजर भयावह नज़र आता है, इन्हीं ख़्यालों में चलते चलते घर आ जाता है और हम morning walk से आते हुए ना जाने कितने किस्से और कहानियाँ ज़हन में लिए हुए कलम से पन्नों पर उतारने को विवश हो जाते हैं। ✍️