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एक सफ़र अनजाना सा (प्रकाशित अक्टूबर 2022) Episode 2
"A story (Novel) which has a flavor of adventure, mystery and love."

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Episode 2

करण ने जैसे ही प्लेटफॉर्म पर क़दम रखे, सर्द हवा के झोंके ने उसको भीतर तक ठण्ड का एहसास कराया! कड़कड़ाती ठण्ड से उसके शरीर में एक सिहरन-सी दौड़ गई। मौसम यूँ बदल जाएगा और सर्दी सामान्य से कहीं अधिक हो जाएगी उसे बिल्कुल भी अनुमान नहीं था।

रामगढ़ गाँव का यह एक छोटा-सा रेल्वे स्टेशन था। बायीं तरफ़ गहरे लाल रंग की इमारत और दायीं तरफ़ प्लेटफॉर्म से लगी हुई ट्रैन खड़ी थी। सामने ही प्लेटफॉर्म पर एक पीले रंग का बोर्ड़ था जिसपर ‘रामगढ़ स्टेशन’ लिखा था। तीन साल पहले जब करण दिल्ली गया था, तब इस प्लेटफॉर्म पर शेड़ हुआ करता था जोकि अब नहीं था। उस समय यहाँ मरम्मत का काम चल रहा था, यह ख़्याल आते ही उसने इधर-उधर देखा, लेकिन मरम्मत के काम जैसा वहाँ कुछ भी दिखाई नहीं दिया। मग़र हाँ, खुले आसमान में घने बादल जरूर दिखाई दे रहे थे, जो बड़ी ही जल्दबाजी में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगे थे। बादलों की धक्का-मुक्की का फ़ायदा उठाकर चाँद भी अपनी उपस्थिति का एहसास कराने की कोशिश कर रहा था। स्याह रंग के वे तमाम बादल मिलकर चाँद को दबाने की जीतोड़ कोशिश करते-से मालूम हो रहे थे। लेकिन बादलों के लिए चाँद को हराना नामुमकिन ही लग रहा था।

करण ने सरसरी नज़रों से प्लेटफॉर्म का जायज़ा लिया। स्टेशन की वह इमारत एक़दम नई जैसी दिख रही थी मानों कल ही बनी हो! सूनी खड़ी वह इमारत आते-जाते यात्रियों की ख़ुशी और ग़म की अकेली चश्मदीद मालूम हो रही थी। उस इमारत के आस-पास ऊँचे दरख़्तों (वृक्षों) की कतारें दूर तक जाकर अंधेरे में गुम हो रही थीं। प्लेटफॉर्म पर आने-जाने के लिए उस इमारत में दायें-बायें दो बड़े मेहराबी रास्ते थे। उन मेहराबों से ज़रा ही ऊपर दीवार की खूँटी पर टंगा एक बल्ब रोशन था, लेकिन वह किसी भी हाल में रोशनी के लिए काफ़ी नहीं था।

इधर प्लेटफॉर्म पर रोशनी के नाम पर दो छोटे-छोटे खम्बों पर गोल सफ़ेद लाइट्स लगी हुई थीं। उनकी मन्द रोशनी में बेंच दिखाई दी तो करण ने जाकर अपना बैग बायीं तरफ़ वाली एक बेंच पर रख दिया। जैकिट की चेन को उसने ऊपर गले तक बन्द कर लिया, और सुन्न हो रहे हाथों को आपस में रगड़कर गर्म करने की असफल कोशिश करने लगा।

प्लेटफार्म पर इस कदर सन्नाटा पसरा हुआ था कि झींगुरों की चिर्र-चिर्र करती आवाज़ ने एक अज़ीब ही माहौल बना रखा था। दूर कहीं से आती भेड़ियों के जैसी हू-हूssss करती आवाज़ ने उस माहौल को और भी दहशत भरा बना दिया। ऐसी भयानक स्थिति देखकर करण को घबराहट होने लगी, इसलिए वह किसी और यात्री के उतरने का इंतज़ार यह सोचकर करने लगा कि ‘एक से भले दो।’ लेकिन ताज्जुब की बात यह थी कि न तो अभी तक कोई यात्री उस ट्रैन से उतरा, और न ही कोई उसमें चढ़ने वाला ही वहाँ आया था। प्लेटफॉर्म पर केवल और केवल करण ही अकेला यात्री खड़ा था।

वक़्त का कुछ अंदाजा नहीं हो रहा था तो उसे घड़ी का ख़्याल आया, मग़र वह अभी भी साढ़े छ: पर ही बन्द पड़ी थी। उसने घड़ी पर उँगली से थपथपी दी, चाबी भरी, लेकिन सेकण्ड वाला काँटा टस-से-मस नहीं हुआ। घड़ी को उसी हाल पर छोड़ते हुए उसने ट्रैन की ओर देखा। जिस बोगी से अभी वह उतरा था, उसका दरवाज़ा ज्यों-का-त्यों खुला पड़ा था। बाक़ी सभी बोगियों के दरवाज़े-खिड़कियाँ बन्द थी, जिनसे छन-छनकर आती धुँधली रोशनी प्लेटफॉर्म के फ़र्श पर पड़ रही थी।

ट्रैन उस छोटे से प्लेटफार्म से काफ़ी आगे तक निकली हुई थी। दूर अंधेरे में नज़र न आ रहे इंजन से स्टीम की सर्र-सर्र करती तेज़ आवाज़ सुनायी दे रही थी। करण सोचने लगा कि आगे की बोगीयों से उतरने वाले यात्रीयों को तो वापस प्लेटफार्म तक पटरी के सहारे-सहारे पैदल ही आना पड़ता होगा। वह अभी यह सोच ही रहा था कि तभी पास वाले खम्बे की लाइट लपलपाकर जलने-भुजने लगी। करण ने लाइट की तरफ़ देखा तो वह दो-तीन बार जल-बुझकर फिरसे जलने लगी। वह उस लाइट को लगातार देखे जा रहा था कि शायद वह फिरसे बन्द होगी। तभी इंजन ने जोर से ह्विसल बजाया, अचानक से बजे ह्विसल की आवाज़ सुनकर करण चौंक पड़ा।

स्टीम के तेज़ प्रेशर की आवाज़ के साथ इंजन ने धीरे-धीरे ट्रैन को आगे खींचना शुरू कर दिया। छुक-छुक करता और ह्विसल बजाता हुआ इंजन स्पीड़ पकड़ने लगा, और एक के बाद एक करके ट्रैन की बोगियाँ उसके सामने से गुज़रने लगी। और जब आख़िरी बोगी सामने से गुज़री, तो उसका ध्यान एक खिड़की के ऊपर लगे बड़े-से बोर्ड पर छपे नंबर “0226” पर गया। उसकी नज़रें उस नंबर का तब तक पीछा करती रहीं, जब तक कि वह नज़रों से औझल न हो गया। अब अंधेरे में उस ट्रैन की आख़िरी बोगी के पीछे जलती-बुझती लाल बत्ती ही दिखाई दे रही थी। ट्रैन उस धुँध भरी रात में धीरे-धीरे दूर और दूर होती हुई अंधेरे में गुम हो गई, और पीछे रह गया केवल इंजन का ढ़ेर सारा सफ़ेद धुआँ जो तैरते हुए बादलों-सा प्रतीत हो रहा था।

ट्रैन के चले जाने से अब वहाँ और भी सूनापन हो चला था, चारों ओर एक अज़ीब-सी वीरानी छाने लगी थी। उस सन्नाटे और अकेलेपन ने करण को ड़राकर रख दिया। वैसे भी उसका ड़रना भी स्वाभाविक ही था, ऐसी अंधेरी, सर्द और सुनसान रात किसी को भी ड़रा सकती थी। उसी क्षण पटरियों के दूसरी तरफ़ वाले प्लेटफॉर्म पर लगी वैसी ही गोल लाइट ने उसका ध्यान आकर्षित किया, जो लगातार जल-बुझ रही थी। वहाँ उस खम्बे से बिल्कुल सटकर खड़ा एक सफ़ेद इंसानी साया दिखाई दिया, जो करण की तरफ़ ही देखता-सा लगा। उसपर नज़र पड़ते ही करण के शरीर में सनसनी दौड़ गयी, दिल की धड़कनें एकदम तेज़ हो गईं। हालांकि कोहरे के कारण वह साफ़ तो दिखाई नहीं दे रहा था, पर वह लगातार करण की ओर मुँह किए खड़ा रहा। करण ने उधर से अपना मुँह फेर लिया और बैग उठाकर इमारत की तरफ़ चल पड़ा। चलते-चलते उसने तिरछी नज़रों से एक बार उधर देखा, अब वह साया वहाँ नहीं था। उसने चारों तरफ़ नज़रें दौड़ाईं, लेकिन अब वाकई वहाँ कुछ भी नहीं था।

“आख़िर वह इतनी जल्दी कहाँ चला गया? क्या वह मेरी आँखों का भ्रम था, या सचमुच वहाँ कोई था!” उसने सोचा।

बचपन में सुनी भूत-प्रेतों की कहानियों ने उसके ड़र में और भी इज़ाफ़ा कर दिया। वहाँ की उस भयावह स्थिति ने तो उसके भीतर एक ठण्डी सिहरन-सी दौड़ा दी।

“मैं बे-वजह ही ड़र रहा हूँ, यह मेरा भ्रम है,” ख़ुद से कहता हुआ फ़ौरन ही वह बाहर जाने वाले मेहराबी दरवाज़े की तरफ़ लपका और इमारत में प्रवेश कर गया।

जैसे ही वह स्टेशन की उस इमारत के दूसरी ओर निकला, उसके क़दम सीढ़ियों पर ही ठिठक कर रह गए। वहाँ के नज़ारे ने तो उसका गला ही सुखाकर रख दिया, चारों तरफ़ सन्नाटा-ही-सन्नाटा व्याप्त था। इंसान तो क्या किसी जानवर का बच्चा तक वहाँ दिखाई नहीं पड़ रहा था। ख़ामोशी का ऐसा भयावह रूप वह अपनी ज़िंदगी में पहली बार देख रहा था। सन्नाटे को चीरती हुई झिंगुरों की चिर्र-चिर्र करती आवाज़ ने वातावरण में एक अज़ीब-सी दहशत फैला रखी थी। सर्द हवा के झोंके करण के इर्द-गिर्द कभी इधर से बहते, तो कभी उधर से। ऐसा लग रहा था जैसे हवा के वे झोंके फुसफुसाते हुए उसके कानों में कुछ कहना चाहते हों।

“हे ​​भगवान! आज मैं आख़िर कहाँ फँस गया हूँ?” घबराते हुए वह धीरे से बड़बड़ाया।

आज पूरे तीन वर्षों बाद वह अपने गाँव आ रहा था, और इन तीन सालों में यहाँ बहुत से बदलाव दिखायी दे रहे थे। पुरानी शैली में बनी वह इमारत उस सुनसान रात में और भी भयावह दिखाई पड़ रही थी। इमारत के ठीक सामने एक टैक्सी स्टैन्ड हुआ करता था, लेकिन अब वहाँ एक बगीचा था। बगीचे के दोनों ओर से आने-जाने के लिए कच्ची सड़कें थीं। सूखी पत्तियों से ढ़की पड़ी वे सड़कें ऐसी प्रतीत हो रही थीं, मानों सालों से यहाँ कोई न आया हो। सड़क किनारे खंभों पर भी कुछेक ही लाइटस् जल रही थी, जिनकी धुँधली रोशनी मुश्किल से ही सड़क तक पहुँच रही थी। तभी हवा के एक तेज़ झोंके ने सूखे पत्तों को सरसराहट के साथ दूर तक सरका दिया।

ऐसे हालातों को देख वह परेशान हो उठा, जल्द से जल्द वह यहाँ से निकलना चाहता था। हिम्मत जुटाकर वह इमारत की सीढ़ियाँ उतरा और बगीचे की तरफ़ बढ़ने लगा। टैक्सी या किसी सवारी के वहाँ कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। ख़ामोशी के अलावा यदि वहाँ कोई था, तो वह केवल ख़ुद था। एक बार को तो उसे लगा कि शायद वह ग़लत जगह पर आ पहुँचा है, उसे जाना कहीं था और पहुँच कहीं गया है! अपनी इसी उधेड़-बुन के साथ वह तेज़ कदमों से मुख्य सड़क की ओर चल पड़ा। मुश्किल से अभी उसने कुछ ही क़दम बढ़ाए होंगे कि तभी।

“सुनिए!”

एक धीमी-सी आवाज़ सुनाई दी, आवाज़ किसी लड़की की थी जो पीछे स्टेशन की इमारत से आई थी। सुनसान और सर्द रात में अचानक लड़की की आवाज़, बिजली के करंट-सी कानों के रास्ते उसके शरीर में उतर गई। अपने कानों पर उसे विश्वास ही नहीं हुआ। शायद यह उसका ड़र ही था, जो ऐसी सुनसान रात में वह इस तरह की आवाज़ें सुन रहा था।

“नहीं-नहीं यह मेरा भ्रम ही है, शायद मेरा ड़र मुझ पर हावी हो रहा है। इस समय यहाँ कोई लड़की भला क्यों होगी? कितनी ही देर से मैं यहाँ था, तब तो मुझे अपने अलावा वहाँ कोई नज़र नहीं आया था!” सोचता हुआ वह बिना पीछे देखे तेज़ कदमों से मुख्य सड़क की ओर चल पड़ा।

“सुनिए!” फिरसे वही आवाज़!

अबकी बार तो ड़र से उसके रोंगटे ही खड़े हो गए। दोबारा आयी आवाज़ ने उसके भ्रम को हक़ीक़त में बदलने का काम किया।

“हे! भगवान रक्षा कीजिए! मैं फिर कभी रात में नहीं आऊँगा और इस ट्रैन से तो सवाल ही पैदा नहीं होता,” बड़बड़ाता हुआ वह लगभग दौड़ ही पड़ा था।

“अरे! सुनिए तो” आवाज़ फिरसे आई। उसने जोर-जोर से ऊपर वाले का नाम जपना शुरू कर दिया।

“प्लीज़ रुकिए!”

इस बार आयी धीमी-सी आवाज़ में थोड़ी परेशानी झलक रही थी। वहाँ फैली ख़ामोशी में उस धीमी आवाज़ को करण ने एक़दम साफ़ सुना था।

“शायद किसी को मदद की ज़रूरत है!” उसने सोचा।

उसके क़दम अपनी जगह ही ठिठक कर रुक गए, फिर हिम्मत जुटाकर उसने पलट कर देखा। स्टेशन की इमारत से बाहर आती एक लड़की की धुँधली-सी छाया दिखायी दी। वहाँ अपने अलावा एक और इंसान को देखकर उसकी जान में जान आयी। असमंजस में खड़ा हुआ वह उस लड़की को अपनी ओर आते हुए देख रहा था।
***

तेज़ कदमों से चलती हुई वह लड़की करण की ओर चली आ रही थी। धुँध से निकलती हुई उसकी छाया धीरे-धीरे साफ़ हो रही थी। नज़दीक आने पर उसकी उपस्थिति ने वातावरण को एक मनमोहक ख़ुशबू से महका दिया, निश्चित ही वह ख़ुशबू उसके लाजवाब पर्फ़्यूम की थी।

नज़दीक आने पर जैसे ही करण ने उसे देखा तो देखता ही रह गया। चाँद-सा खूबसूरत चेहरा, बड़ी-बड़ी झील-सी आँखें, गहरा काजल, कमल की पंखुड़ियों से होंठ, और माथे पर चमकती नन्हीं-नन्हीं शबनमी बूँदें, मानों खूबसूरत फूल पर ओस की बूँदे छिटक कर बिखर पड़ी हो। शायद घबराहट और तेज़ चलने से ऐसी सर्दी में भी उसे पसीने आ रहे थे।

वह कोई तेईस या चौबीस वर्ष की रही होगी, उसने बड़े कॉलर वाला लम्बा सफ़ेद ऊनी कोट पहना था और कोट से ही मिलती-जुलती सिर पर गोल टोपी थी। गले में लिपटा हुआ सुर्ख लाल रंग का मख़मली मफ़लर उसपर बड़ा ही लुभावना लग रहा था।। लड़की के मनमोहक आकर्षण से वह बच ही न पाया, सबकुछ भूलकर सम्मोहित-सा अपनी जगह पर एक़दम जड़-सा होकर रह गया था। उस पल पहली बार उसने ख़ुद के भीतर अपने दिल और मस्तिष्क को आपस में बातें करते हुए सुना।

“कौन है यह शहजादी? कितनी खूबसूरत हू-ब-हू परियों-सी! लगता है जैसे आसमान से उतरकर सीधे सामने आ खड़ी हुई हो। पहली ही नज़र में इसने मुझे मोह लिया है!” करण का दिल कह रहा था।

तभी दिल को चुप करते हुए करण का मस्तिष्क बोला, “ऐसी सर्द और सुनसान रात में बला की खूबसूरत यह लड़की? और वह भी एक़दम अकेली?

बेटा! भूतनी है यह, और भूतनियाँ भी कम खूबसूरत नहीं होतीं! ऐसी सुनसान रातों में अचानक ही ये घबराती हुई सामने आ जाती हैं। फिर राहगीरों को अपनी खूबसूरती और प्रेममयी बातों के मायाजाल में फाँसकर खण्ड़हरों में ले जाती हैं, और फिर अगले दिन…...” उसके मस्तिष्क ने अपनी बात को अधूरा ही छोड़ दिया।

“फिर अगले दिन?” करण के दिल ने घबराते हुए मस्तिष्क से पूछा।

“ख़ून निचौड़ी हुई उनकी लाश किसी पेड़ पर उलटी लटकी हुई मिलती है,” मस्तिष्क ने अपनी बात पूरी की।

अपने दिल और मस्तिष्क के बीच होती उन बातों को सुन करण के रोंगटे खड़े हो गए।

“हैलो!” लड़की ने करण के चेहरे के सामने हाथ हिलाते हुए कहा, “मैंने कितनी आवाज़ें दी थीं, लेकिन आप सुन ही नहीं रहे थे!”

“क क क्या, हिच?” आवाज़ उसके गले में ही फँसकर रह गई।

“कितनी ही बार मैंने आपको पुकारा, लेकिन आप हो कि सुनना तो दूर पीछे मुड़कर भी नहीं देख रहे थे,” उसने एक़दम शिकायती लहज़े में कहा।

“न..नहीं ऐसी बात नहीं हैं, दरअसल मैं थोड़ा ज..जल्दी में था तो..तो स…सुन नहीं पाया!” ड़र से करण की जुबान उसका साथ नहीं दे रही थी, “वैसे मैंने आपको प्लेटफॉर्म पर तो नहीं देखा, वहाँ तो मैं अकेला ही…..,”

प्लेटफॉर्म का नाम करण के दिमाग़ में बिजली की तरह कौंधा, उसका दिल धक-धक जोर से धड़क उठा। प्लेटफॉर्म के नाम के साथ ही उसे दूसरी ओर वाले प्लेटफॉर्म पर खड़ा वह सफ़ेद साया ध्यान आ गया जो उस समय उसे ही देख रहा था।

“यह लड़की उस साये से कितनी मिलती-जुलती है! तो क्या उस प्लेटफॉर्म पर यही थी?” करण ने सोचा, “हाँ बिल्कुल यही थी और यह जरूर भूतनी ही है! तभी तो यह अचानक वहाँ से गायब हो गई थी! ऐसी सुनसान रात में आने की हिम्मत, भूतनियों के अलावा और किस में हो सकती है! आज तो कहानी खत्म समझो बेटा!”

उस क्षण उसके सारे बदन में सनसनी-सी फैल गयी। वह इतना ड़र गया कि दिमाग़ एक़दम सुन्न होकर रह गया था। क्या करे क्या नहीं, सोचते हुए उसके पाँव थर-थर काँप रहे थे।

“आपको ड़र लग रहा है?” वह करण की हालत को भाँप गई थी।

“न...नहीं...थ...थोड़ी सर्दी लग रही है बस,” अपने ड़र को दबाते हुए वह बोला।

“देखिए आपको इस तरह ड़रते देखकर तो मुझे भी घबराहट-सी होने लगी है,” वह बोली।

“यदि यह भूतनी है तो फिर ख़ुद क्यों घबरा रही है?” करण ने एक पल सोचा और आख़िर पूछ ही लिया, “आप वहाँ उस दूसरे वाले प्लेटफॉर्म पर थीं क्या?”

“मैं? नहीं तो! मैं तो अभी-अभी प्लेटफॉर्म पर पहुँची थी। लेकिन जब वहाँ कोई दिखाई नहीं दिया तो फ़ौरन ही मैं उलटे पाँव वापस हो गयी,” एक पल रुककर वह फिर बोली, “दरअसल! मैं यहाँ अपने डैडी को लेने आयी हूँ,”

“ओह!" करण धीरे से बड़बड़ाया, "शुक्र है यह कोई भूतनी नहीं है।”

“क्या कहा अपने?” लड़की ने पूछा।

“जी! मेरा मतलब है कि कहाँ हैं आपके डैडी?” वह झटसे बोला।

“पता नहीं! ट्रैन से ही आने वाले थे, लेकिन मुझे यहाँ पहुँचने में थोड़ी-सी देरी हो गई,” एक पल रुककर उसने करण से पूछा, “क्या आप भी ट्रैन से ही आए हैं?”

“जी हाँ! केवल मैं ही आया हूँ,” करण बोला।

“मतलब?” उसने पूछा।

“मतलब यह कि ट्रैन से उतरने वाला मैं ही अकेला मुसाफ़िर हूँ,” करण ने एक आह भरते हुए कहा, “कितनी ही देर तक मैं वहाँ रुका था, लेकिन मेरे अलावा कोई भी यात्री वहाँ नहीं उतरा। और सच बताऊँ तो मैंने आपको भी प्लेटफॉर्म पर आते हुए नहीं देखा था!”

“दरअसल! जब आप उस दरवाज़े से बाहर आ रहे थे, तब मैं उसके साथ वाले दरवाज़े से प्लेटफॉर्म पर जा रही थी,” स्टेशन वाली इमारत की ओर इशारा करते हुए वह बोली।

करण ने इशारे वाली दिशा में देखते हुए कहा, “असल में मेरे आलावा वहाँ कोई उतरा ही नहीं, इसलिए ही आपको वहाँ कोई नहीं मिला!”

“ऐसा कैसे हो सकता है? डैडी भी ट्रैन से आने वाले थे और..” कहते हुए वह चुप हो गई और उसने फिरसे इमारत की ओर देखा।

इमारत के वे दोनों मेहराबी दरवाज़े धुँधले-से ही दिखाई पड़ रहे थे। वहाँ नाम मात्र को ही रोशनी थी, फिर भी वहाँ आते-जाते किसी व्यक्ति को देखा जा सकता था। लेकिन ऐसी सुनसान और ठण्डी रात में वहाँ किसी का होना बेमानी ही लग रहा था।

कितने ही पलों तक ख़ामोश खड़ी वह लड़की स्टेशन के उन दरवाज़ों को ताकती रही, जैसे अभी भी उसे अपने पिता के आने की उम्मीद हो। दोनों के बीच छायी ख़ामोशी में झींगुरों की चिर्र-चिर्र करती आवाज़ से सारा वातावरण गूँज रहा था।

करण ने ही फिर उस असहनीय ख़ामोशी को तोड़ते हुए कहा, “शायद! वह पहले ही आकर चले गए हों!”

“ऐसा नहीं हो सकता कि वो आयें, और मेरा इंतज़ार किए बिना ही चले जाएँ!” लड़की ने पूरे विश्वास के साथ कहा।

“यह भी तो हो सकता है कि अभी वो आए ही न हों!” करण ने अपना अनुमान जताते हुए कहा।

“पता नहीं, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा,” उसने फिरसे एक नज़र इमारत की ओर देखा।

“वैसे उन्होंने अपने आने क्या टाइम बताया था?” करण ने बातचीत ज़ारी रखते हुए उससे पूछा।

“कहा तो सात बजे ही था, मैं ही थोड़ी-सी लेट हूँ,” वह बोली।

“मौसम को देखकर तो सात के आस-पास का यह टाइम भी ज़्यादा ही लग रहा है!” करण ने उसे वहाँ की स्थिति से अवगत कराते हुए कहा।

“मतलब?” वह बोली।

“मतलब यह कि ऐसी सुनसान रात में आप यहाँ तक चली आयीं हैं, वह भी एक़दम अकेले, बड़ी हिम्मत है आपकी,” करण बोला।

लड़की के चेहरे के भाव एक़दम से बदल गए, उसके चेहरे की मासूमियत यकायक ही गायब हो गई।

“क्यों न आती?” लड़की ने रहस्यमयी तरीक़े से अपने शब्दों पर जोर देते हुए कहा, “आज की रात का तो मैंने कब से इंतज़ार किया है।”

लड़की के कहे इन शब्दों ने करण के दिल की धड़कनों को बढ़ा दिया। अचानक ही वह लड़की बहुत रहस्यमयी हो गई थी। उसने अभी कहा था कि उसके डैडी आने वाले हैं जोकि नहीं आए, और ऐसी सुनसान भयानक रात में वह बिल्कुल अकेली है, जैसे उसको ऐसी रातों का कोई ड़र ही न हो! एक पल में ही तरह-तरह के ख़्याल करण के दिमाग़ में घूम गए।

“इं..इंतज़ार किया है? क..किसका इंतज़ार किया है? और ऐसी रात में आपको ड़..ड़र नहीं लगता?” करण ने धड़कते दिल के साथ पूछा।

लड़की ने अपने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा, “मुझे सर्द और सुनसान रातें पसन्द हैं!”

उसके चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कुराहट थी, उसकी बड़ी-बड़ी आँखें करण को चुभती-सी लगी। लड़की को एकटक अपनी ओर देखने भर से ही करण ने अपने भीतर ड़र की एक लहर उतरती महसूस की, जिससे उसके शरीर का रोआँ-रोआँ तन गया।

“सुनसान रातें प..पसन्द हैं..मतलब?” करण हकलाते हुए बोला।

“देखिए! देखिए चारों ओर, कैसी ख़ामोशी पसरी पड़ी है। यह घोर सन्नाटा, उसपर यह पूनम की रात! ऐसी ही रातों का तो मुझे इंतज़ार रहता है,” लड़की ने रहस्यमयी अंदाज़ में कहा।

करण अब समझ गया था कि आज उसका सामना सचमुच की भूतनी से ही हो गया है। वह यह भी जान गया था कि बचपन की सुनी कहानियाँ कोरी झूठ नहीं थीं। इस भयानक रात में यह बला की खूबसूरत लड़की ऐसे ही नहीं भटक रही है। जरूर यह अपनी प्यास बुझाना चाहती है, खून की प्यास!

करण को अपने पैरों में चींटियाँ-सी रेंगती हुई महसूस हुई। अपने पैरों पर खड़े रहना उसे मुश्किल लग रहा था। एक अज़ीब से ड़र ने उसके दिल को जोर से धड़का दिया। लड़की का इस तरह रहस्यमयी बातें करना और उसका यूँ घूरकर देखना वह सहन नहीं कर पा रहा था, ड़र से उसकी हालत ख़राब होने लगी थी।

“ऐसी रातों क..का इंतज़ार..म..मतलब?” बोलते हुए करण को अपने गले में कुछ फँसता हुआ सा लगा।

“मतलब आपका सिर,” लड़की ने कहा।

“सिर? मेरा सिर? मं, मैं..स..समझा नहीं,” ड़र से हकलाते हुए करण बोला।

“मैं..मैं..स..समझा नहीं!” लड़की ने उसकी नकल करते हुए नाराज़गी दिखाते हुए कहा, “क्या मैं आपको कोई भूतनी दिखाई देती हूँ? मुझसे ऐसे ड़र रहे हो जैसे मैं..मैं..मैं क्या कहूँ? अपनी हालत देखिए कितना ड़र रहे हो, प्लीज़, प्लीज़ ड़रिए मत! मैंने तो ऐसे ही कह दिया था। मुझे कोई अँधेरी रात-वात पसन्द नहीं, और मैं सच में एक जिंदा लड़की हूँ, जिंदा, लड़की, समझे आप?”

“ओह..ओह! ...हो, सच में?” करण ने एक गहरी साँस ली और अपने पर काबू पाते हुए कहा, “अग़र आप अभी सच नहीं बतातीं, तो, तो मेरी जान ही निकल गई थी,”

लड़की ऊपर देखते हुए धीरे से बुदबुदायी, “ओफ़ हो! किससे पाला पड़ गया है,” फिर वह करण की ओर देखते हुए बोली, “सच्ची आप तो बहुत ही ड़रते हैं!”

“क्या बात करती हो! इस रात को देख रही हो? उसपर आपकी भयानक बातें और ड़रावनी ऐक्टिंग? मैं तो क्या कोई भी ड़र जाए!” करण गहरी साँस लेते हुए बोला।

“देखिए!" वह बोली, "आपको ड़राने का मेरा कोई इरादा नहीं था। लेकिन जिस तरह से आप ड़रे जा रहे थे तो मुझे मज़ाक करना सूझ गया।”

“बहुत ही ड़रावना मज़ाक था! अच्छा किया आपने सही वक़्त पर बता दिया,” करण बोला।
अभी तक भी उसकी साँसे संतुलित नहीं हुई थी। ख़ुद को सामान्य करने की कोशिश करते हुए वह गहरी साँस ले रहा था।

लड़की ने एक नज़र इमारत के दरवाज़े की तरफ़ देखा और कुछ सोचकर करण से पूछा, “वैसे आपको कहाँ जाना है?”

“चिरनालगाँव,” अबतक वह काफ़ी सहज हो चुका था।

लड़की के चेहरे के भाव ही बता रहे थे कि इस नाम को वह पहली बार सुन रही है।

“यह वाला चिरनालगाँव, जो पर्यटन स्थल है,” करण ने हाथ से ऐसे इशारा किया जैसे उसका गाँव सामने ही हो!

“ओह अच्छा!” जैसे लड़की ने उस नाम के गाँव को याद करने की कोशिश की।

“लगता है आपने पहले यह नाम नहीं सुना?” वह बोला।

लड़की ने नहीं में सिर हिलाया।

“कोई बात नहीं अब तो जान ही गई हो, चिरनालगाँव नाम की भी एक जगह है, बस यही से थोड़ा-सा आगे,” वह बोला।

“एं.. हाँ, हाँ!” शायद लड़की अपने पिता के न मिलने को लेकर थोड़ा परेशान थी।

“वैसे! आप यहाँ कहाँ रहती हैं?” करण ने उससे पूछा।

“मैं तो यहीं पास ही में रहती हूँ,” लड़की ने करण के शहरी पहनावे को देखते हुए कहा, “लेकिन आप यहाँ के रहने वाले नहीं लगते?”

“मैं भी यहीं का ही रहने वाला हूँ चिरनालगाँव का! अभी तो बताया था! फिलहाल दिल्ली में रह रहा हूँ,” करण ने बताया।

“अच्छा?” लड़की ने अपनी भोहें ऊपर उठाते हुए पूछा, “दिल्ली में क्या करते हो?”

“बैंक में हूँ,” करण ने तुरन्त ही अपनी कही बात को ठीक किया, “मतलब, कि बैंक में रीलैशन्शिप मैनेजर हूँ। और आप?”

“मैं यहाँ की प्रिन्सेस हूँ,” लड़की ने करण पर रोब जमाते हुए कहा।

करण लड़की का मज़ाक समझ गया था, उसने भी बातों का चटकारा लेते हुए कहा, “राजकुमारी जी! मुझे ऐसा लगता है कि आप बे-वजह ही इंतज़ार कर रही हैं, अब तक तो महाराज महल पहुँच भी गए होंगे!”

लड़की के चेहरे पर बदले हुए भाव ही बता रहे थे कि वह करण की बातें सुनकर चिढ़ गयी थी। पाँव पटकते हुए वह मुख्य सड़क की ओर जाने के लिए मुड़ गयी। करण भी उसके पीछे-पीछे हो लिया, और वैसे भी उस सुनसान रात में वह अब और अकेला नहीं रहना चाहता था।

“लेकिन राजकुमारी जी! अब हमारी समस्या यह है कि यहाँ कोई वाहन तो दिखाई दे नहीं रहा, इसलिए घर जाना थोड़ा मुश्किल हो सकता है!”

वह करण की तरफ़ पलटी और बड़ी कुटिल मुस्कान के साथ बोली, “यह हमारी नहीं केवल आपकी समस्या है। मेरे पास अपनी मोटरकार है,”

उसकी यह कठोर बात सीधी करण के दिल में जाकर चुभी। सुनकर करण को बहुत ही बुरा लगा था। हालाँकि दोनों अभी-अभी ही मिले थे और उनमें कोई ख़ास पहचान भी नहीं थी, फिर भी बातचीत के दौरान करण को लगा था जैसे अन्दर-ही-अन्दर दोनों मित्र बन गए हैं, और तो और करण उसे पसन्द भी करने लगा था। लेकिन जल्द ही उसका यह भ्रम भी दूर हो गया।

करण की उस ख़ामोशी के साथ वहाँ की हरेक चीज़ ख़ामोश होती चली गई। सन्नाटा धीरे-धीरे फिरसे अपने पैर पसारने लगा, और वहाँ की हर चीज़ को अपनी आगोश में लेता चला गया। लड़की एक जीते हुए खिलाड़ी की तरह शान से चली जा रही थी, जैसे उसने अभी-अभी करण को हरा दिया हो। उसके कदमों की हर आहट पर बेचारे झींगुर भी शान्त होते जा रहे थे। फिर देखते-ही-देखते वह लड़की बगीचे के दायीं ओर वाली सड़क से होती हुई घने कोहरे में गायब हो गई।

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to be continued. . . . .