...

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मेरा किरदार....।
चलता है... सब कुछ चलता है। एक वक्त ऐसा आता है जब तुम कुछ नहीं करना चाहते।
जब जैसे भी हालात हो, कोई कुछ भी कहे.... कोई कुछ भी करें.... तुम बस जो चल रहा है उसे वैसे ही चलने देना चाहते हो। सब कुछ जैसे छोड़ देते हो। कभी यूं सोंचते हो कि मेरे कुछ कहने या करने से फर्क ही क्या पड़ेगा।
you know you easily except everything
तुम्हारे जहन में ये आता है कि ठिक है न, कितना कर सकते हैं.... कितना अपने हिसाब से आप कहानी में बदलाव ला सकते हैं।
अंत में जिसने लिखी है उसने सब अपने हिसाब से ही करना है। तुम्हारे और मेरे सोचने से कुछ होने ही नहीं वाला है
तो कल सुबह उठने के बाद होने क्या वाला है उसका अंदाजा ही नहीं है तो क्यों न जो जैसे चल रहा है उसे वैसे ही चलने दिया जाए।
इस बात की फिक्र करे बिना कि कितना हो पायेगा, क्या जैसा सोंचा है वैसा हो पायेगा? बात कैसे बन पायेगी?
क्यों न उसे ऐसे ही उसपे छोड़ दिया जाए।
आखिर किसकी जिम्मेदारी है इस कहानी को पूरा करना,
जिसने शुरू की है... आगे का seen भी वही diside करें.... हम क्यों करें?
हमारा काम तो बस किरदार निभाते रहना है...।