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ठेस

© Nand Gopal #हिंदी साहित्य दर्पण
#शीर्षक ठेस
स्वरचित - नन्द गोपाल अग्निहोत्री
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यूं तो रोजमर्रा की नोकझोंक आम बात थी,
लेकिन उस दिन तो अति ही हो गई ।
क्या यह तुम्हारा आखिरी फैसला है, बुझे मन से पूछा उसने ।
हाँ यह मेरा आखिरी फैसला है, और अधिक मैं नहीं झेल सकती ।
या तो तुम शहर में किराए का मकान लेकर रहो, या अकेले अपने माता-पिता के साथ घुटन भरी जिंदगी में ।
मैं यहाँ नहीं रह सकती ।
तुम्हीं सोचो कितनी आशा से कष्ट झेलकर हमें पालपोस कर इस लायक बनाया, अब हम इन्हें इस हालत में छोड़कर कैसे जा सकते हैं ।
यह तुम्हारी समस्या है, तुम झेलो मुझे इस पचड़े में नहीं पड़ना ।
और पैर पटकते हुए ट्राली बैग के साथ निकल पड़ी अपने मायके के लिए ।
वहाँ पिता ने प्रश्नभरी दृष्टि से देखा, माँ ने आश्चर्य से पूछा - बेटी इस हालत में और अकेले ?
हाँ माँ मैं वह घर छोड़कर आ गई सदा के लिए ।
तभी भैया और भाभी निकले, भाभी ने कहा " लो आगयी छाती का पीपल बनने " ।
एक गहरा आघात लगा, माँ पिता एक स्वर में बोल पड़े,
बिटिया सच पूछो तो वही घर तुम्हारा है, तुम्हें इसप्रकार नहीं आना चाहिए ।
एक धक्का लगा, आत्मविश्वास जवाब देगया और उल्टे पांव बिना कुछ बोले लौट पड़ी वह ।