...

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चाँद
कितनी खूबसूरत रात है न,
चाँदनी रात या केहलो वो रात जिसमे ख़्वाब भी उजले हो हालांकि ये जरूरी नही पर देखो न कितनी शीतल है ये रात पता है मैं बैठा हूँ छत पे अपनी चाँद के उजले साए तले एक मद्धम सी रोशनी बेह रही है बदन में पूरे मैं बैठे हुए चाँद को देखता रहा जैसे चकोर देखता है अमृत की प्रतीक्षा में पर मुझे किसी चीज़ की चाहत नही थी, बस एक ख्याल जेहेन में गोते लगा रहा था उन बहती हुई चंचल किरणों के साथ कि क्या मैं तेरे ख़यालो से निकल पाउँगा या तू रहेगा शामिल मुझमे हमेशा शामिल न होकर भी, ये रात जो इतनी उजली हैं ,पर देखो जरा बादलों ने घेर रखा है आसमाँ, क्या चाँद अकेला काफी है उजाले को तारोँ के बगैर आसमाँ थोड़ा सुना-सुना सा नही है ,याद है तुझे तू केहती थी न कि कभी बैठेंगे हम दोनों चाँद के तले पूर्णिमा के आगोश में एक दूसरे को पूरा देखने को।। ये ख़यालो का हुज़ूम चल ही रहा था कि


अचानक हवाए चली और चाँद फिर बादलों में छुप गया।।

फिर ख़्वाब वही आके रुक गए
सिर्फ सवाल छोड़ गए।।
सवाल था - क्या??

क्या हम बैठेंगे चाँद के तले पूर्णिमा की शीतल कोमल रोशनी में एक दूसरे को पूर्ण करने??
© storyteller