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// विवाह - बंधन या स्पंदन //

अनु अपने ज़िन्दगी की एक ऐसी पड़ाव पर थी, जहाँ कुछ छूट रहा था तो कुछ जुड़ रहा था। कशमकश में अपनी नजरें झुका कर बैठी थी। दुल्हे वाले उसको अपने दोनों आँखों से निहार रहे थे। मन ही मन, पता नहीं, क्या क्या सवाल उठा भी रहे थे।
" हाँ, बहुत ख़ूबसूरत बीवी ढूँढा है मनु ने। नाम भी क्या बात है - अनु और मनु । लक्ष्मी है, देखो कितना अच्छा सबकुछ लाएगी वो हमारे लिए।" -मनु की चाची ठहाके लगा कर बोली।
मामी साथ देने लगी, " पहले तो नौकरी करती थी, अब वो सुशील बहू बनकर देखना सबका मन मोह लेगी।"
शादी की रात में दुल्हन मुस्काए नहीँ तो क्या करें। अनु अपने आप में ही बड़ी सुलझी हुई थी। समझदारी से काम करना उसकी ख़ासीयत थी। हँसकर सब कुछ सुनी।

" अरे! विदाई का वक़्त आ गया है, दुल्हा - दुल्हन को तैयार रखो। गाड़ी आ रही है।" यह सुनकर बहलाते हुए आँसुओं को रोकने की कोशिश तो बहुत किया था उसने, पर वो तो होना ही था। फूट फूटकर रोने लगी वो। उसे लगा नहीं था, कि वक़्त इतना जल्दी बीत जाएगा और वो पराई हो जाएगी।
विवाह से पहले सबकुछ उसके लिए, ठीक-ठाक था। आज पता नहीं, क्यूँ वो इतनी भावुक हो रही है। घर के बाहर आने से पहले, बालकनी में जाकर अपना घर अंगना फ़िर एक बार, आखिरी बार देखने गई। हर जगह रोशनदान से सजा हुआ है, फूलों से और निखारा सँवारा गया है उसकी मैके को। क़दम बढ़ाते हुए बालकनी के एक छोर से दूसरे छोर तक बस चलती ही जा रही थी। उसका हृदय स्पंदन बढ़ता जा रहा था। " एक तो उधार क़र्ज़ करके ही पापा ने आडंबर से उसकी शादी करवा रहे हैं।
" क्या ये जरूरी था, क्या कुछ कम में नहीं हो सकता था?" - इन सवालों के संग वो ख़ुद को दोषी करार दिए जा रही थी। सवालों के संग उसकी उलझन बढ़ती जा रही थी। पर कुछ जवाब ना मिला उसे। उलटे पाँव बालकनी से निकल कमरे में आ गई।
सामने माँ को देख ज़ोर ज़ोर से रोने लगी। ऐसे ज़ोर से पकड़ कर रखी की छूटे ना कभी ये दामन। माँ अपनी बेटी को हिदायत दिए जा रही थी, कर्तव्य को लेकर सचेतनता सीखा रही थी। पर ख़ामोशियों को दिखा कर मुखमंडल पे हँसी, अनु अपने सवालों पर सवाल उठा रही थी। माँ को रोते हुए पूछ लिया - " विवाह में यह चकाचौंध करना जरूरी है क्या? यह धड़कन में जो स्पंदन हो रहे हैं, क्या ये कभी कम होंगे? माँ यह कैसा बंधन है जो मुझसे छूटता नज़र आ रहा है!! "
माँ की नम आँखों में जो शैलाब था, वह उमड़ पड़ा। अनु के मन के अंदर एक ख़्याल बारंबार दस्तक दे रहा था, क्या ये जरूरी था- विवाह में बँधकर अपनों से दूर रहना और हर पल हृदय को स्पंदित करना, एक ख़ौफ़ में पूरी ज़िन्दगी गुज़ार देना, जहाँ पर क़दम रखा नहीं, वहाँ के लोग कितना अपनाएंगे पता नहीँ। उनके विचार पर जीना, क्या ये सही है?
यही सोच के साथ एक बुत बन आँखों से बहती आँसुओं की नदी संग उसकी विदाई हो गई। सारी उम्र एक अजनबी संग जीवन बिताने बंधन में बंध कर विदाई ली बहुत सारे अरमानों से, जिनको सोचते ही, उसकी होठों पर हँसी खिल जाती थी, मन स्पष्ट रूप से सच्चाई देख पाता था।
बस, एक आस का दीया जला कर मन में स्पंदन बढ़ता गया और वो गाड़ी में बैठ, रूखसती कर गई।

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