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'स्वर्ग' का मार्ग
एक दिन एक साधु गांव में धर्मप्रचार कर रहे थे। हर एक व्यक्ति से उनके सुख दुख की जानकारी ले रहे थे, सम्मेलित हो रहे थे।उन्हें सांत्वना दे रहे थे। उन्हें धर्म की परिभाषा बता रहे थे। अपने सेवक सेविकाओं के साथ वार्तालाप करते हुए ज्ञान का आदान प्रदान कर रहे थे। एक किसान अपनी गायों की सेवा कर रहा था। वह साधु किसान के पास आए और कहा,
"पुत्र, क्या तुम 'स्वर्ग' जानते हो ?"

किसान ने कहा,
"नहीं भगवन।"

उन्होंने मुस्कुराकर पूछा,
"स्वर्ग का मार्ग जानते हो ?"

किसान ने कहा,
"नहीं भगवन।"

उन्होंने हँसते हुए पूछा,
"स्वर्ग जाना चाहते हो ?"

किसान ने कहा,
"नहीं भगवन।"

साधु और उनके शिष्य इस उत्तर से अचंभित हुए। सभी एक दूसरे की ओर देखने लगे। जैसे तैसे साधु ने अपने भाव शांत कर किसान से कहा,
"क्या मैं जान सकता हूं, तुम स्वर्ग क्यों जाना नही चाहते ?"

किसान ने इसपर उत्तर दिया,
"भगवन, मैं स्वर्ग नहीं जानता और ना ही स्वर्ग जाने का मार्ग। तो मैं स्वर्ग भला कैसे जा सकता हूं ? जहां जाने का प्रयोजन ही न हो, जहां जाने का मार्ग जानते न हों, वहां पर जाने का क्या लाभ ? उस मार्ग पर जाना ही क्यों ?"
इस उत्तर पर थोड़ा मौन रहते हुए साधु ने कहा,
"पुत्र, हम जहां रहते हैं वह पृथ्वी। इसके नीचे है पाताल और ऊपर है स्वर्ग। जब तक हम जीवित हैं, हम संसार के सभी सुखों को अनुभूत कर सकते हैं। उनका आनंद ले सकते हैं। मृत्यु पश्चात हमारे लिए वह संभव नहीं। मृत्यु पश्चात हमें स्वर्ग या नरक जाना होता है। हमारे पाप और पुण्य के अनुकूल हम या तो स्वर्ग जाते हैं, या नरक। मैं स्वर्ग का मार्ग बताने आया हूं। मेरी यह इच्छा है, भूलोक का हर मनुष्य स्वर्ग में आनंद ले।"

किसान ने पूछा,
"भगवन, स्वर्ग में जाने का लाभ बताएंगे ?"

साधु ने हँसते हुए कहा,
"पुत्र, मृत्यु पश्चात हमारी आत्मा शरीर को त्याग कर या तो नया शरीर धारण करती है। या वह स्वर्ग में जाती है, या नरक में। स्वर्ग पृथ्वी से सौ गुना सुंदर तेजपूर्ण और विशाल है। स्वर्ग में देवता वास करते हैं, अप्सराएं वास करती हैं। वहां विशेष पकवान बनाए जाते हैं। विशेष सभा होती है। अप्सराओं का नृत्याविष्कार होता है। सेवा में दास-दासीयाँ उपस्थित होते हैं। सभी प्रकार के सुख, भोग-विलास, आनंद वहाँपर प्राप्त होंगे, जो इस तुच्छ जीवन में तुमने अनुभव भी न किए होंगे।"

किसान ने कहा,
"अगर जीवित रहते हुए, स्वर्ग की प्राप्ति हो, तो बताइए। मृत्यु पश्चात स्वर्ग कैसे देख पाऊँगा ? अगर हमारा जीवन और मृत्यु तक का सत्य हमनें अपनी आँखों से देखा है, तो कृपया स्वर्ग भी अपनी आँखों से देखना चाहूंगा परंतु..."

साधु ने पूछा,
"परंतु क्या पुत्र ?"

किसान ने कहा,
"भगवन, मैं तो ठहरा एक गरीब किसान। शरीर तो जानता हूं, आत्मा नहीं। मृत्यु पश्चात स्वर्ग का मार्ग जानता नहीं। पृथ्वी से सुंदर और विशाल रचना का तो मैं क्या ही करूंगा ? स्वर्ग में देवता हैं, तो उन्हें निवेदन है। कृपया यहां आएं और पृथ्वी को और फली फूली बनाएं। मैं साधारण किसान हूं, विशेष पकवानों की आशा मुझे नहीं। दो वक्त की रोटी मिले वही बहुत। सभा में मेरा क्या काम ? खेती के अलावा मैं कुछ जानता भी नहीं। नृत्याविष्कार मेरे किस काम के ? मुझे उनमें रुचि नहीं। दास दासियाँ सेवा में होना, राजा और महाराजाओं के लिए शोभा देता है। मुझ गरीब किसान को इनकी क्या आवश्यकता ?
सुख तो यहां भी है। भोग-विलास जैसे विष से मैं कोसों दूर हूं। उनमें भला आनंद मैं कैसे पा सकता हूं ?"

साधु ने मुस्कुराकर कहा,
"पुत्र, आत्मा अर्थात चेतना। हमारी जीवंतता को चेतना से जाना जाता है। शरीर और आत्मा एकत्रित हो हमारे जीवन को वास्तविक बनाते हैं। शरीर की आयु होती है। उसका एक दिन नष्ट होना अनिवार्य है। किंतु आत्मा अमर है, उसकी मृत्यु नहीं होती। ना उसे जलाया जा सकता है, ना उसे भिगोया जा सकता है, ना उसे काटा जा सकता है और ना उसे मिटाया जा सकता है। हम जीवन में जो भी अच्छे कर्म करते हैं, वह पुण्य होते हैं, और जो बुरे कर्म करते हैं, वह पाप। मृत्यु पश्चात आत्मा शरीर को त्याग अच्छे कर्म अनुसार स्वर्ग, बुरे कर्म अनुसार नरक की ओर प्रस्थान करती है। स्वर्ग में अनेकों युग आनंद में वास करती है। नरक में अनेकों युग यातनाएं सह, पुनः पृथ्वी पर लौट नए शरीर को धारण कर जीवन चक्र में अटक जाती है। मोक्ष मिलने के लिए मनुष्य जन्म तक की लंबी प्रतीक्षा भी करनी पड़ती है। मनुष्य जीवन में इसलिए भोग-विलास आनंद का महत्व है।"

किसान ने कहा,
"भगवन, चेतना और आत्मा एक ही कैसे हो सकती हैं ? जबतक हम जीवित हैं, तबतक चेतना है। मृत्यु पश्चात चेतना का अस्तित्व ही नहीं। आत्मा अमर है, तो जन्म से पूर्व भी उसका अस्तित्व है और मृत्यु पश्चात भी। आत्मा को ना जलाया जा सकता है, ना भिगोया जा सकता है, ना काटा जा सकता है और ना मिटाया जा सकता है। इसका अर्थ उसे कुछ भी प्रभावित नहीं कर सकता। अगर आत्मा को कोई छू नहीं सकता, तो स्पष्ट है की आत्मा चेतनाहीन है। अगर आत्मा चेतनाहीन है, तो यह भी स्पष्ट है की उसे जीवन-मृत्यु, स्वर्ग-नरक का कोई ज्ञान नहीं। और यदि आत्मा को यह ज्ञान ही नहीं, तो वह स्वयं स्वर्ग या नरक कैसे जा सकती है ? स्वर्ग जा कर वहां की सुंदरता, विशालता, देवता, अप्सराएं, नृत्याविष्कार, सभाएं, विशेष पकवान, दास-दासीयाँ, भोग-विलास, आनंद आत्मा को इनका क्या लाभ ? नरक पर विचार करें, तो कर्म के अनुसार वहां पर आत्मा का जाना या अनेकों युग यातनाएं सहने का प्रश्न ही नहीं उठता ? और वहां जाने का ज्ञान नहीं तो पुनः पृथ्वी पर लौट जीवनचक्र में सम्मेलित होने का अर्थ ही क्या रहा ? और रहा विषय भोग-विलास आनंद का, यदि यह क्षणिक सुख ना मुझे जीवन दे सकता है, ना मोक्ष। इस जीवन में अंतःतक दुखों का कारण ही बन सकता है, तो ऐसे विषैले आनंद का क्या लाभ ?"

साधु एक सामान्य किसान की असामान्य विचारधारा को देख अचंभित हुए। सभी सेवक-सेविका बहुत प्रभावित हुए। उन्हें सत्य का ज्ञान हो गया। जिस मिथ्य को वह सत्य समझ रहे थे, उस अंधःकार भरे अज्ञान से प्रकाश भरे ज्ञान का मार्ग मिल गया।

*तात्पर्य: धर्म किसी के सुख-दुख को जानना ही नहीं, उसे चेतना से अनुभव करना भी है। सिर्फ उपदेश दे कर सांत्वना देना परोपकार नहीं। कष्ट में पीड़ित हर जीवित की सहायता करना ही धर्म है। कर्म और मोक्ष कोई किसी को सौंप नहीं सकता। कर्म हमें ही करना है, मोक्ष की प्राप्ति अपने आप हो जाएगी। अनेकों जन्म मिलें हो मिलते हों या मिलने वाले हों, जो जन्म हमें मिला है, उसी जन्म में अच्छे कर्म करें। स्वर्ग यहीं है। काल्पनिक स्वर्ग का कोई लाभ नहीं।

© VIKRANT