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जिंदगी के किस्से

बात कुछ साल पहले की है जब रेलवे में बतौर असिस्टेंट लोको पायलट नियुक्त हो कर मैं अपनी ट्रेनिंग के लिए लुधियां गई थी ।
जिस दिन रिपोर्ट करना था मैं अपने सामान के साथ अकेले ही ट्रेनिंग सेंटर पहुंची जहां पेपर वर्क के बाद ट्रेनिंग स्कूल के प्रिंसिपल ने मुझे हॉस्टल जाने को कहा जो वहां से वॉकिंग डिस्टेंस पर था।
हॉस्टल के रास्ते से हॉस्टल के ग्राउंड तक बस लड़कों की घूरती नजरें मिली।
अंदर जाने पर एक कमरे में जो हॉस्टल का कार्यालय था एक सर थे उन्होंने मुझे एक दूसरे पुरुष को मिलाते हुए ( वो ट्रेनिंग पर आई हुई दूसरी लड़की के पिता थे) बताया कि इनके साथ चले जाओ सामने वाले कमरे में दो और लड़कियां है और आप तीनों एक कमरे में दो बेड पर एडजस्ट हो जाना।
दो फ्लोर के हॉस्टल में हम तीन लड़कियों को एक कमरा और दो बेड मिले वो भी दो महीने के लिए।
अब ये ऐसी फील्ड नही है की लड़कियों के लिए अलग से व्यवस्था हो यहां लड़कियों की संख्या कम है।
हालाकि मुझे वहां रहना उचित नहीं लगा और मैंने बाहर रूम ढूंढा और 2 महीने की ट्रेनिंग के लिए किराए पर कमरा लिया। वो दोनो लड़कियां जो अपने अपने अभिभावक के साथ आई थीं मेरे साथ हो ली। उनके अभिभावक का कहना था तुम जहां रहोगी ये भी साथ रहेंगी। उनको दो चार घंटे में मुझमें पता नहीं कौन सी माता दिखीं😁 की हॉस्टल से ज्यादा मेरे साथ सुरक्षित लगीं अपनी बेटियां।
ट्रेनिंग स्कूल में भी एक ही वाशरूम था जिसमे लड़के जाते थे इसके लिए कंप्लेन किया फिर लड़कों को रोक कर ब्रेक के टाइम हम तीनो बारी बारी से उसी वाशरूम को इस्तेमाल किया करते थे ।
अब आप सोच रहें होंगे की ये सब किस लिए बता रही हूं।
बीते दिनों सुधा मूर्ति जी की एक वीडियो क्लिप देखी जिसमे वो अपने इंजीनियरिंग के दिनों में जहां पुरुषों का बोलबाला है वहां अकेली महिला होने पर आने वाली तमाम समस्याओं के बारे में बात कर रही थीं जिसमे से वाशरूम भी एक थी।
फिर ऐसा लगा की इतने सालों के बाद भी महिलाओं के लिए देश ने कितनी तरक्की की है।
ये जो समस्याएं मैं झेल रही हूं वो मुझसे पहले जाने कितनी महिलाओं ने झेला है और शायद आगे भी झेलती रहेंगी।
हालाकि रनिंग रूम में महिलाओं के लिए अलग कमरे हैं अटैच बाथरूम के साथ। पर ये वाशरूम का वाकया बस एक उदाहरण था बात मानसिकता की है और इस पुरुष प्रधान देश में औरतों के प्रति वो सोच अब भी नहीं बदली है मानो या ना मानो आपकी मर्जी।
हर क्षेत्र में महिलाएं खड़ी हैं पर उसके लिए कितनी आंतरिक और बाहरी लड़ाइयां लड़ी हैं वो नही देख पाएगा कोई। हालाकि ये शिकायत नहीं है, पर क्या रुक कर सोचने की जरूरत नहीं है? क्या आपने अपने पुरुषों को सिखाया वो जो सीखाना चाहिए था?
अगर आपने बनाया उन्हे इस लायक की एक सुंदर समाज बने तो औरतों की मुश्किलें आज भी वहीं की वहीं क्यों हैं?
क्यों नही हुआ आसान रास्ता घर से दफ्तर तक का?
क्यों आज भी चौराहे पर दुपट्टा ठीक करते निकलना पड़ता है उसे? ऐसे बहुत से क्यों हैं जिनके जवाब ढूढना बंद कर दिया है मैने अब। पर जवाब नहीं पूछने से सवाल नहीं मरते वो रहते हैं वैसे ही मुंह चिढ़ाते हुए।

#जिंदगी_चलती_रहे
#कुछ_किस्से_मेरे_हिस्से_के
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©priya singh