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रिश्ता या अपनापन......
रिश्ता ही एक नायाब तोहफ़ा है जो दिलों को जोड़ता है, चाहे कोई नाम हो या ना हो। पर दिल से निभाया गया रिश्ता, हमेशा कायम व ता-उम्र साथ देता है।

कुछ रिश्तों को निभाना मजबूरी होती है, तो कुछ अपने आप नदी की धार सा बहते सुकूँ देता है।

मजबूरी में आकर ख़ुदको तकलीफ़ से नवाज़ते हैं, पर हमें उसकी इल्म नहीं होती, जब तक हम उस बचाव की ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए अपने आप को ख़ाक़ में मिला देते हैं। अपने वज़ूद को तवज्जो ना दिए, दुसरों को हमारी दुनिया मानने लगते हैं। इस रिश्ते में अपनी ही क्षति होती है। ना सुकून ना मन को शांति ना आँखों से कभी ख़ुशी छलकती है। फ़िर भी दर्द सहकर ये रिश्ते निभाए जाते हैं।

कुछ रिश्तों को वक़्त अपना हमसफ़र बना देता है और वो दिल के क़रीब भी होते हैं। जिसे हम अपनापन कहते हैं। इनमें कुछ खोने का डर नहीं होता ना ही कुछ पाने की ख़्वाहिश। बस इक दूजे के लिए अज़ीज़ बन जाते हैं और बिना किसी की बहकावे में आकर अपने वज़ूद को संभाल कर, दायित्व का पालन करते हुए हमेशा ख़ुश रहते हैं। ये रिश्ता किसी नाम का डंका बजा कर निभाना चाहता नहीं, बस अपने में हमेशा ख़ुश रहता है।

अपनों के संग बँधा हुई रिश्ता हमेशा आसपास होता है, आश्वासन देकर आगे भी बढ़ाता है तो कभी दु:खों का वज़ह भी बनता है। इनमें चाहत माँग की बहुत होती है। शायद वही दु:ख की वज़ह है।
अपनापन का ढोंग दिखाकर स्वार्थपूर्ति होने पर रवाना हो जाते है।

पर दिल से जुड़ा साथ, ता-उम्र अपने आप में मुकम्मल हो, अपनेपन को साथ लेकर साथ निभाते हैं। उनमें ख़ुदा का एक अनोखा रूप दिखता है, जो निस्वार्थ भाव से अभिभूत कराकर आगे बढ़ने को हौसला अफजाई करता है।

मेरे लिए वो साथ नायाब है, जो निस्वार्थ सेवा और प्रेम से लिपटा हुआ चादर हो, जो दिल की गहराई से वक़्त के कसौटी पर भी खरा उतर जाता है।


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