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प्यारी गलतियां
अपनी ही गलतियां ढूंढने में,कितना सुकून मिलता है।
तारीफ़ में वो मिठास नही,जो गलतियों के एहसास में है।
अपनी गलतियों को ढूंढ पाना,उसी तरह है जैसे किसी पुराने खिलौने को पाना।जो हमारी ही गलतियों से टूटा है,
जो हमे सबसे प्रिय था जिसके बगैर रहना असंभव था।फिर यह सोचना की अगर,मैंने इसकी अच्छी देखभाल की होती तो यह सलामत होता,पर आज वह वैसा नही है जैसा पहले था,उसे वैसे नही दिखा सकते जैसा पहले दिखा सकते थे,पर हमारी तमाम गलतियों के बावजूद,आज उसका अस्तित्व है।उसके प्रति हमारा प्रेम न काम हुआ और न ही उसका आकर्षण।हमारा प्रिय खिलौना भले आज पहले की तरह न हो,
उसमे कुछ परिवर्तन हो गए है।पर हम उसे उसके सारे परिवर्तनों के साथ स्वीकार करते है।आज वह हमारे खेल में शामिल नही,पर उसका अधूरा कार्य करना ही हमे सुकून देता है।अपनी गलतियों को ढूंढना,कितना सुकून देता है।

पहले हो सकता है कि हमे उस खिलौने का महत्व न मालूम हो,
हमने उसको ज्यादा महत्व नही दिया हो।पर जिस पल वो आपसे दूर हुआ होगा,आज भी उस दर्द की टीस दिल मे उठती है।वह दर्द याद दिलाता है कि आपको संबंधों का पोषण सही तरह से करना चाहिए।गलतियों का एहसास कितना सुकून देता है।मेरी गलतियों पर मुझे अभिमान है,
अगर मैंने उनको नही किया होता तो,जो आज मैं हूँ वह नही होता।
उन गलतियों की सीख इतनी प्यारी है,कि रह रह कर याद करने को मन करता है।वही है जो आज मुझे कुछ भी करने को प्रेरित करता है,क्योंकि अब मैं गलतियां करने से डरता नही,क्योंकि उनसे जीवन की सकारात्मक सोच मिली है।सबसे प्रिय खिलौना के दूर जाने का ग़म से, बड़ा और कोई दूसरा गम नही है।क्यों उस समय मैंने उसे नही सम्हाला,लोगों की बातों में अपना ध्यान कहीं और रखा।या हो सकता है उस पल हालात वैसे ही हों,पर आज के हालातों में उस खिलौने की मुझे जरूरत है।पर वह मेरे खेल में अपनी सहभागिता देने में असमर्थ है।उसका क्या दोष उनमे दोष तो मेरा है,अगर वह चाह कर भी मेरे खेल में शामिल नही,मुझे उसके खेल में शामिल न होने का दुख तो है।अपनी गलतियों का एहसास कितना सुकून देता है।
संजीव बल्लाल
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