अंतर संवाद..
अंतर संवाद
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ऐ मेरी प्रेरणा, तुम्हारा प्रतिरूपण बड़ा दुखदायी है, मैंने सिर्फ़ तुम्हें अपने चित्त में पाया है.. तुम्हारा स्वरूप कितने बार वर्णन कर चुका.. तुम्हारा वही विकारों से परे, निर्मल चरित्र जो इस भौतिक जगत में दुर्लभ है.. कभी कभी वही चरित्र का साक्षात्कार किसी किसी में पाता हूँ.. तब तुम्हें प्रत्यक्ष देखने को मेरा मन विकल हो उठता है.. जब कोई कठिन संघर्ष करके भी बड़ा सहज जान पड़ता है, जब कोई अपने जीवन में प्रेम को सर्वोपरि मानता है, जिसका चरित्र गंगा की तरह पतित पावन होता है, तब उसे देखते ही लगता है मानो तुमने ही किसी मनोहार,सर्वसद्गुण लिये किसी नार का स्वरूप ले लिया है, मैं तुम्हारे उस निर्विकार निष्कलंक निर्मल स्वरूप को जीवंत देखने की जिज्ञासा लिये दौड़ पड़ता हूँ.. और तभी इस भौतिक जगत...
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ऐ मेरी प्रेरणा, तुम्हारा प्रतिरूपण बड़ा दुखदायी है, मैंने सिर्फ़ तुम्हें अपने चित्त में पाया है.. तुम्हारा स्वरूप कितने बार वर्णन कर चुका.. तुम्हारा वही विकारों से परे, निर्मल चरित्र जो इस भौतिक जगत में दुर्लभ है.. कभी कभी वही चरित्र का साक्षात्कार किसी किसी में पाता हूँ.. तब तुम्हें प्रत्यक्ष देखने को मेरा मन विकल हो उठता है.. जब कोई कठिन संघर्ष करके भी बड़ा सहज जान पड़ता है, जब कोई अपने जीवन में प्रेम को सर्वोपरि मानता है, जिसका चरित्र गंगा की तरह पतित पावन होता है, तब उसे देखते ही लगता है मानो तुमने ही किसी मनोहार,सर्वसद्गुण लिये किसी नार का स्वरूप ले लिया है, मैं तुम्हारे उस निर्विकार निष्कलंक निर्मल स्वरूप को जीवंत देखने की जिज्ञासा लिये दौड़ पड़ता हूँ.. और तभी इस भौतिक जगत...