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सपना
सड़क पार करने से ठीक पहले सहसा उसके कदम रुक गए। साफ सुथरी स्कूल की यूनिफॉर्म में सजे हुए बच्चे खूब शोर मचा रहे थे। काँधों पर अपना अपना स्कूल बैग उठाए , किसी साथी बच्चे की बात पर हँस रहे थे शायद।
कुछ देर एकटक देखती रही उन्हें और अचानक जाने क्या सोचकर उसके भाव- विहीन चेहरे पर एक मुस्कुराहट तैर गई । इस से पहले की अपनी मुस्कान को वो अपने आप महसूस भी कर पाती ,साथ में खड़े छोटे भाई ने कहा, ‘दीदी चलो ! देर हो रही है ’। उसने झटके से सर हिलाया , मानो किसी सपने से हड़बड़ाकर उठी हो । एक आखिरी नज़र उसने स्कूल बस में चढ़ते बच्चों को देखा और बाजू हिलाकर काँधे पर रखे कबाड़ से भरे बोरे को दुरुस्त किया। जैसे ही बोरा हिला, उसमें भरी खाली प्लास्टिक की बोतलों से हल्की सी आवाज़ उठी और शांत भी हो गई ।

एक लंबी साँस ली उसने और ऐसे लगा मानो बाहर जाती साँस के साथ उसने अपने मन को भी खाली कर दिया उस सपने से, जो कुछ पलों के लिए चोर दरवाज़े से मन में चला आया था। उसने छोटे भाई का हाथ थामा और सड़क पार करने लगी...

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"चलो एक "घरौंदा"बनाते हैं उन ख्वाबों के लिए
जो दिल से निकलकर जुबाँ पर भी ना आ पाए ..."

© संवेदना

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