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बोध कथा
*बोध कथा*

*एक बार एक व्यक्ति के जेब में दो हजार रूपये (2000/-) एवं एक रूपये का सिक्का एक साथ हो गये।*

*सिक्का अभीभूत होकर दो हजार के नोट को देखे जा रहा था...नोट ने पूछा-इतने ध्यान से क्या देख रहे हो ?*

*सिक्के ने कहा - आप जैसे इतने बड़े मूल्यवान से कभी मिले नही इसलिए,ऐसे देख रहा हूँ, आप जन्म से अभी तक कितना घूमे फिरे होगे ?*

*आपका मूल्य हमसे हजारों गुना जादा है आप कितने लोगों के उपयोगी हुए होगे*

*नोट ने दुखी होकर कहा - तुम जैसा सोचते हो ऐसा कुछ भी नही है। मै एक उद्योगपति की तिजोरी मे कई दिनों तक कैद था। एक दिन उसने टैक्स चोरी से बचने के लिए घूस के रुप में मुझे एक अधिकारी के हवाले कर दिया।मैने सोचा चलो कैद से छूटे।अब तो किसी के उपयोगी होंगे पर उसने तो मुझे बैंक लॉकर में ही कैद कर दिया।*

*महीनों बाद अधिकारी ने बंगला खरीदने में,हमें बिल्डर के हाथों मे सौप दिया।*

*उसने हमें एक बोरे में बांधकर एक अंधेरी कोठरी मे बंद कर दिया।*

*वहां तो हमारा श्वांस फूलने लगा और तड़पता रहा।किसी तरह अभी कुछ दिन पहले मै इस व्यक्ति के जेब मे पहुंचा हूँ।*

*सही बताऊं तो,पूरी जिन्दगी जेल में कैद की तरह रहा।नोट ने अपनी बात पूरी कर सिक्के से पूछा,*

*दोस्त तू बता जन्म से अब तक कहां कहां घूमा फिरा किससे किससे मिले? सिक्का ने घबड़ाते-घबड़ाते कहा-*

*दोस्त..मैं,अपनी क्या बात कहूँ?*

*एक जगह से दूसरी जगह तीसरी चौथी बस सतत घूमते-फिरते ही रहे!कभी भिखारी के कटोरे से बिस्कुट वाले के पास तो कभी बच्चों के पास से चाकलेट वाले के पास,पवित्र नदियों मे नहा कर,तीर्थ स्थल मे तीर्थ कर आए वहां प्रभु चरणों मे जगह मिली तो कभी आरती की थाली में घूमे और खूब मजा किया।*

*और जिसके भी पास गए,सबको मजा करा रहा हूँ...सिक्के की बात सुनकर,नोट की आँखें भर आई।*

*आप कितने बड़े हो ये महत्व नहीं रखता* 






*सुविचार: positive सोच*

ये जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थियाँ होती अथवा आती हैं, ये वास्तवमें हमारी सोचके ऊपर ही निर्भर होती हैं। अर्थात् हम प्रतिकूल परिस्थिति को भी अपनी सोच से अनुकूल परिस्थिति बना सकते हैं।

जैसे कि भगवान् श्रीरामजी ने वनगमनकी प्रतिकूल परिस्थिति को भी अपनी सोचसे अपने अनुकूल बना लिया था। वनगमन रूपी प्रतिकूल परिस्थिति को अपने अनुकूल बनानेवाली श्रीरामजी की पहली सोच -
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।
श्रीरामजी ने माता-पिताकी आज्ञा पालनको ही महत्त्व दिया, वन के दुःख और कष्टों की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया, बल्कि उन्होंने अपनी सोचमें केवल वनके महत्त्वको ही देखा -
मुनिगन मिलनु बिसेषु बन सबहिं भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।
भगवान् श्रीरामजी की तीसरी सोच अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय भाई भरतजी के प्रति थी -
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू।।
इन्हीं सभी सोचों को लेकर ही भगवान् श्रीरामजी अपने आपको अत्यन्त भाग्यशाली समझ रहे हैं अर्थात् -

जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी।।
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीँ। देखु बिचारि मातु मन माहीं।।

*इन्हीं सभी सोचों के कारण से ही श्रीरामजी ने अपनी प्रतिकूल परिस्थिति वनगमन को भी अपने अनुकूल बना लिया था और इसी वनगमनके समय की प्रतिकूल परिस्थितिको ध्यानमें रखते हुए, उनके मन और हृदयमें जो आनन्द हुआ था उसका वर्णन करते हुए ही कहा गया है कि*

*नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।*
*छूट जानि बन गवनु सुनि उ अनंदु अधिकान।।*

श्रीरामचन्द्रजीका मन नये पकड़े हुए हाथीके समान और राजतिलक उस हाथीके बाँधनेकी काँटेदार लोहेकी बेड़ीके समान है। 'वन जाना है'