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"पान की दुकान"
वाहिद चाचा की पान की दुकान पूरे मोहल्ले के लोगों के लिए जैसे गपशप करने का एक जरिया था। किसी को पान न भी खाना हो तो भी वो एक बार उनकी दुकान के एक चक्कर लगा लेता कि शायद वहां कोई जान पहचान का मिल जाए। चाचा की दुकान आम पान की दुकानों से इसलिए भी अलग थीं कि वाहिद चाचा ने अपने दुकान के सामने एक दो कुर्सियां भी रख दिया था जिससे जो भी आता कुछ देर वहां बैठ जाता था। वहां सब एक दूसरे से भी बातें किया करते और कभी कभी चाचा से भी बतिया लेते थे, लेकिन चाचा के घर परिवार की बातें ज्यादा किसी को मालूम न थी बस इतना ही पता था कि चाची का इंतकाल ५ वर्ष पहले हो चुका था।दो बेटे थे जो शायद बाहर रहते थे बस इतना ही। वर्ष पर वर्ष गुज़रते रहे इस बीच मोहल्ले में बहुत कुछ बदल गया बच्चे बड़े हो गए बेटियों का विवाह हो गया और वाहिद चाचा भी ८०पार कर गये, मगर नहीं बदला तो वाहिद चाचा की दुकान और वहां लगने वाले लोगों का मेला, फिर एक दिन वो हुआ जो आज तलक कभी न हुआ था आज उनकी दुकान बंद थी देखते देखते ११बज गए तो लोगों का माथा ठनका आनन-फानन में किसी बच्चे को चाचा के घर तक दौड़ाया गया तो पता चला रात चाचा जब सोएं तो सुबह का सूरज न देख सके। किसी तरह दोनों बेटों को फ़ोन किया गया। लेकिन जब शाम तलक़ जब कोई नहीं आया तो वाहिद चाचा को मोहल्ले के लोगों ने ही सुपुर्द-ए-खाक किया गया। लेकिन सबके मन में एक ही प्रश्न था कि आखिर ताउम्र चाचा तन्हा जीवन बिताते रहे कम से कम उनके अंतिम समय तो बेटों को आना चाहिए था। मगर आजकल किसी किसी संतान के लिए उनके माता-पिता भी बोझ हो जातें है।
चाचा की पान की दुकान बंद होने से मानों अब तो वो जगह ही विरान हो गया।
(समाप्त)-लेखन समय-३:३०-रविवार
१४.४.२४


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