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सिसकता बचपन
सुबह के 4:20 का वक्त था। मैं अपनी चिर निंद्रा में विभोर था। हालांकि शहरों में ज्यादातर लोग इस समय अपनी मीठी नींदों का आनंद लेने में मस्त रहते हैं। कुछ लोग बाहर टहलने के लिए भी निकले हुए थे। लॉक डाउन का 21 वां दिन था। प्राकृतिक आपदा काल की भांति चारों ओर बाहें फैलाए दौड़ रही थी। अतः सरकार ने लॉकडाउन को 3 मई तक बढ़ाने का फैसला कर लिया था। मुझे भी खाने और सोने के अलावा कोई काम नहीं था। सहसा जोरों की आंधी चलने लगी। आंधी की रफ्तार करीब 160 किलोमीटर प्रति घंटा की होगी। लोग अपने घरों में जाने लगे। मेरे घर के बगल में दो अनाथ बच्चे अपने जीवन की बग्गी को अपने 10 साल और 5 साल के कंधे पर उठाकर कर्म पथ पर चले जा रहे थे। वे खाने-पीने की कमी के कारण शारीरिक रूप से कमजोर थे। जब भी मैं उसे देखता था कुछ ना कुछ उसे जरूर देता था। जिससे उसके जीवन की गाड़ी चलती रहे और उन्हें दुख ना हो। आज वे दोनों उस भयावह आंधी में पास के बगीचे की ओर दौड़ गए। शायद उन्हें कुछ आम चुनना था। इससे उनके खाने का जुगाड़ हो जाता। अभी कुछ ही हम चुने थे कि सहसा एक टहनी उस पर आ गिरी। छोटा भाई बेसुध होकर जमीन पर गिर पड़ा। बहन चारों तरफ मदद के लिए चिल्लाने लगी। लेकिन तेज हवाओं ने उसकी आवाज को दबा दिया। मैं कौतूहल बस थोड़ा बाहर निकला तो उसने मुझे आवाज दी - भैया छोटे के ऊपर पेड़ गिर पड़ा। मैं दौड़ते हुए बगीचे में गया तो मैंने उसे बेहोश पाया। सिर फटा हुआ था। खून बह रहा था। घर में लाकर मैंने खुद उसकी मरहम पट्टी की। थोड़ी देर बाद उसे होश आया। तब मैंने चैन की सांस ली। उसे जोर से डाटा क्यों गए थे उधर कुछ हो जाता तो! छोटे ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया- आम अगर नहीं चुनेंगे तो पैसा कौन देगा। दीदी अकेले कैसे कमाएगी लड़की है ना।
सच कहता हूं आज पता चला कि गरीबों के बच्चे सीधेे जवानी में कदम रखते हैं। बचपन उनके जीवन में नहीं आता है।