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कैसे हो?
'कैसे हो?' आजकल इस प्रश्न का सामना करते ही मैं असमंजस की स्थिति में पड़ जाता हूँ। यह प्रश्न स्थिति वाचक और व्यक्ति वाचक दोनों है। मैं कैसा हूँ, यह कह पाना थोड़ा कठिन है। सहस्त्रों विचार द्रुतवेग से गमन कर मेरे मस्तिष्क को चैतन्य कर देते हैं, परंतु उत्तर तब भी मेरे पास नहीं होता। दिन का हाल बताऊं या फिर अब तक के जीवन का, यह स्पष्ट नहीं हो पाता, क्योंकि कहीं न कहीं मुझे स्वयं यह नहीं पता है कि मैं कैसा अनुभव कर रहा हूँ। फिर भी निरुत्तर होकर सामने वाले का अपमान करने से बचते हुए मैं वही उत्तर देता हूँ, जिसकी उसने अपेक्षा की थी, 'एकदम बढ़िया'। परस्पर प्रश्नों का क्रम जारी रहता है, क्योंकि संभवतः यही आजकल बातचीत का आधार है। मेल मिलाप पूरा होने के बाद मैं अपने रास्ते आगे बढ़ता हूँ, किंतु मेरे मन में तब भी वही पहला प्रश्न घूमता रहता है और मैं अपने चित्त से पूछता हूँ, 'क्यों भाई, कैसे हो?' उत्तर आता है 'वैसा ही जैसा तुमने मुझे बना रखा है, चिंतित, अधीर और चंचल'। यहाँ यह तो स्पष्ट है कि मेरे 'कैसे होने' का मेरे 'कैसे जीने' से सीधा संबंध है। अगले ही क्षण मैंने निर्णय लिया कि अब मैं स्वयं से ये प्रश्न हर दिन पूछुंगा, ताकि मैं उस अकेले व्यक्ति को ठीक रख सकूँ, जो मेरा जीवन भर साथ देने वाला है। एक प्रश्न ने मुझे अपने बारे में सोचने का अवसर दिया और यह दिखाया कि प्रसन्न रहना कठिन तो है पर असंभव नहीं। ये मेरे लिए आवश्यक है कि मैं स्वयं की बात भी सुनु और समझूँ। निश्चित ही मेरे अच्छा अनुभव करने का मुझसे जुड़े लोगों पर सीधा और सकारात्मक प्रभाव होगा। एक हल्की मुस्कुराहट के साथ मैंने अपने चित्त से कहा 'अब तू अकेला नहीं, मैं तेरे साथ हूँ'। उत्तर आया, 'वो सब तो ठीक है, अब असल जीवन में आ जा, तू बीच चौराहे पर खड़ा है'।
© @Supermanreturns