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सिनेमा तथा समाज
हम हमेशा से सुनते आ रहे हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है और साहित्य के लिए कही जाने वाली यह बात साहित्य के ही चिंत्राकित स्वरूप सिनेमा के लिए भी पूरी तरह से सटीक बैठती है। आप दुनिया के किसी भी देश की एक क़िताब या एक फ़िल्म से उस देश अथवा समाज की तत्कालीन दशा के विषय में सटीक अंदाज़ा लगा सकते हैं।
तो चलिए फिर इम्तियाज़ अली की फिल्मों की तरह एक अनोखी यात्रा पर निकलते हैं जिसमें हम सिनेमा और सिनेमा के कुछ चरित्रों के बाइस्कोप से स्त्री समाज और स्त्रियों के प्रति समाज में हो रहे बदलावों को करीब से देखेंगे।

अगर हम सबसे पहले शुरुआत सिनेमा से ही करें तो वहां भी बीते दस सालों से वूमेन लीड फिल्मों की बाढ़ आई हुई है और ये बदलाव बॉलीवुड, हॉलीवुड, जैपनीज, कोरियन, चाइनीज, फ्रेंच सहित पाकिस्तान जैसे देशों में भी आया है। अचानक आये इस बदलाव की वजह रीसर्चर्स महिलाओं का भी फिल्में देखना बताते हैं। ज्ञात हो कि पिछली सदी में महिला दर्शकों की संख्या लगभग नगण्य थी जिस कारण से अधिकांश फ़िल्में पुरूष प्रधान ही बनती थी। अब हालांकि औरतों की कहानी ख़ुद औरतें कह तो रही हैं लेकिन अभी भी उनकी संख्या काफ़ी कम है और भुगतान में जो एक बड़ा गैप देखने को मिलता है उसे पटने में शायद अभी बहुत समय लगे।

महिला चरित्रों में ख़ास तौर पर बॉलीवुड में धीरे -धीरे एक जो नया बदलाव आ रहा है जिसे देख कर एक ख़ास किस्म की खुशी मिलती है और वो बदलाव है औरतों का भी एक प्रोफेशन होना। जैसे कि अगर आपने "हम आपके हैं कौन" देखी है तो क्या आप बता सकते हैं कि माधुरी दीक्षित क्या काम करती थी? नहीं बता सकते क्योंकि डायरेक्टर ने ये बताने या कहें कि सोचने की जहमत ही नहीं उठाई थी। अगर आपने बहुत पुरानी फिल्में देखी हों तो उनमें नायिकाएं अपनी चिट्ठी किसी और से पढ़वाया करती थीं। उसके बाद एक ज़माना आया जिसमें "शर्मिला टैगोर", "ज़ीनत अमान" या रेखा जैसी अभिनेत्रियां "बाबूजी मैं कॉलेज जा रही हूं" बोल कर घर से निकलती हुई दिखाई देती थीं और उसके बाद जूही चावला, रवीना टंडन, करिश्मा कपूर आदि के समय में उनका कॉलेज दिखाया जानें लगा। इक्कीसवीं सदी की शुरुआती अधिकांश फिल्मों का तो केंद्र ही कॉलेज लव स्टोरी रही हैं लेकिन दुर्भाग्य से महिलाओं को काम करते हुए तब भी यदा -कदा ही दिखाया जाता था। लेकिन इधर कुछ सालों से "की & का" में करीना कपूर को करियर ओरिएंटेड, टू - स्टेट्स और डियर ज़िंदगी आदि में आलिया को कामकाजी, हॉफ गर्लफ्रेंड में भी श्रद्धा कपूर को कुछ काम करते दिखाया गया है। इन फिल्मी क़िरदारों और अपने पास -पड़ोस की लड़कियों के करियर गोल्स में आपको एक कनेक्शन नज़र आयेगा।

वैधव्य और समाज: बदलाव की इस बयार में बहते हुए जो पहला परिवर्तन मैंने नोटिस किया वो था हाल में रिलीज़ फ़िल्म "पगलैट" का रंग। विवाह के कुछ ही महीने बाद विधवा हुई पगलैट की संध्या बचपन में देखी गई कुछ -कुछ इसी विषय की फिल्म " प्रेमरोग" से बहुत से मामलों में अलग थी। जहां एक तरफ़ प्रेमरोग में राजपरिवार की चहेती बेटी मनोरमा वैधव्य बंधन से छुटकारे के लिए किसी प्रेमी पर पूर्णतया निर्भर है वहीं पगलैट की पढ़ी -लिखी संध्या अपनी कहानी की ख़ुद ही हीरो है और हीरोइन भी। संध्या का दुःख समझते हुए भी दर्शक उसके दुःख से दुखी तो होते हैं लेकिन किसी भी तरह से उन्हें वो बेचारी नहीं लगती। समाज तथा सिनेना में परिलक्षित ये बदलाव शायद स्त्री -साक्षरता और उसी अनुपात में बढ़ती आत्मनिर्भरता का परिणाम है। हालांकि इसी विषय पर इक्कीसवीं सदी की अन्य फिल्में "डोर" तथा "बाबुल" भी हैं। इनमें अगर बाबुल का अपवाद छोड़ दें तो डोर भी ग्रामीण समाज में विधवाओं के जीवन में आई जिजीविषा को भली प्रकार से सामने रखने में सफ़ल हुई है।

अगर हम रेप पीड़िताओं को केंद्र में रखी फ़िल्मों की बात करें तो "हमारा दिल आपके पास है", "दामिनी" तथा "दुश्मन" जैसी फ़िल्में हैं। इनमें एक तरफ़ जहां किसी नायक की कृपा पर जीवन जी रही एक कमज़ोर नायिका मिलेगी तो वहीं दूसरी तरफ़ मजबूती से औरों के हक में खड़ी नायिकाएं भी दिखेंगी लेकिन बलात्कार के टैबू को जिस तरह से हालिया रिलीज़ "पिंक" ने चुनौती दी है उतनी शायद ही किसी फ़िल्म ने दी हो... " चरित्र जब पवित्र है तो क्यों है ये दशा तेरी, है पापियों को हक नहीं कि ले परीक्षा तेरी।"

समर्पित, पारंपरिक किरदारों से अलग "लाइफ इन अ मेट्रो", "अस्तित्व" की तब्बू और "हमारी अधूरी कहानी" की विद्या का क़िरदार शादीशुदा औरतों को भी नए सिरे से ज़िंदगी जीने की इजाज़त देता हुआ कहता है " है तूझे भी इजाज़त, कर ले तू भी मुहब्बत। वहीं इन सबसे इतर कुछ अनअपोलोजेटिक क़िरदार भी दिखते हैं जैसे "जब वी मेट" की गीत, "क्वीन" की रानी, "कहानी" की विद्या बागची, "थप्पड़" की तापसी, और "देव डी" की पारो जो समाज की तथाकथित महान औरतों का मास्क उतार फेंक बिना किसी बोझ के ज़िंदगी को हल्के में ले उसका लुत्फ उठाती फिरती हैं। वहीं अपने चरित्र में मातृत्व और प्यार के अलावा अन्य भावनाओं के शेड्स लिए पार्चेड, मातृभूमि, एंग्री इंडियन गॉडेसेस, मार्गरीटा विथ अ स्ट्रॉ, हेट स्टोरी ( फर्स्ट पार्ट), साहेब बीवी और गैंगस्टर ( फर्स्ट पार्ट) की ग्रे औरते भी मिलेंगी।
मुझे उम्मीद है कि सिनेमा और समाज के इस सफ़र के बाद जब आप अपनी अगली PVR यात्रा पर होंगे तो आप भी आपकी सिनेमा यात्रा में मिली महिलाओं में अपने समाज की किसी स्त्री का चेहरा तलाश करेंगे, हां अब आपको सिनेमा में समाज मिलता है या समाज में सिनेमा ये चॉइस आप पर छोड़ते हैं।

© Neha Mishra "प्रियम"
07/04/2022