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राम चरित्र 3.0 (वैदिक और पौराणिक भगवान का इतिहास)
राम चरित्र 3.0
(वैदिक और पौराणिक भगवान का इतिहास)
ब्राह्मणों का मत है कि भगवान दो प्रकार के होते हैं एक वैदिक और दूसरा पौराणिक।
वैदिक भगवान को देखा जा सकता है किंतु पौराणिक भगवान को नहीं।वैदिक भगवान के रूप में स्वयं सूर्य उपस्थित है, चंद्रमा, पंचमहाभूत अर्थात आकाश, वायु, अग्नि जल एवं पृथ्वी वैदिक भगवान के रूप में ही है।
पौराणिक भगवान हमारे इतिहास के धरोहर हैं जिनमें भगवान राम और कृष्ण मुख्य हैं, ऐसी हमारी पौराणिक ग्रंथों में अनंत भगवानों की अनंत कथाएं हैं।
तुलसीदास जी कहते हैं
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
इतिहास हमें सिखाता है कि हम हमारे वर्तमान और भविष्य को कैसा बनाते हैं। इतिहास से ही हमें सीख मिलती है कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं?
रामचरित्र की कहानी को आगे बढ़ते हुए हम अपने तीसरे अध्याय की शुरुआत करने जा रहे हैं।
भगवान शंकर और माता पार्वती के दो पुत्र कार्तिक और गणेश हैं।
मनुष्य को उनके परिवार से सीख लेनी चाहिए की कैसे भिन्न-भिन्न भाँति के मनुष्य एक दूसरे के साथ सामंजस्य बिठाकर प्रेम पूर्वक एक दूसरे की मदद करते हुए भगवान का भजन करते रहते हैं। भगवान शंकर का वाहन नंदी अर्थात बैल है वहीं मां जगदंबा पार्वती का वहाँ सिंह यानी शेर है। दोनों एक दूसरे के बैरी हैं। भगवान शंकर के गले में सर्प विराजते हैं वहीं कार्तिकेय का वाहन मोर है। मोर और सांप एक दूसरे के विरोधी हैं। गणेश जी का वाहन चूहा है किंतु चूहा और सांप की आपस में नहीं बनती.।।पर अगर हम भगवान शंकर के परिवार को देखें तो वे सब एक दूसरे के साथ सामंजस्य बिठाकर प्रेम पूर्वक एक साथ रहते हैं इससे कलयुगी मनुष्य को सीखना चाहिए कि कैसे हमें परिवार के साथ रहना चाहिए।
परिवार से परिपूर्ण होकर एक बार माता पार्वती शांत मन से बैठी हुई थी तभी उनके मन में राम जी की कथा का रसपान करने की इच्छा हुई।
कथा का रसास्वादन हेतु भगवान शंकर के समीप गई और उनसे पूछा प्रभु अगर आप हम पर प्रसन्न हैं, अगर आप हमें राम कथा का अधिकारी मानते हैं तो कृपा करके राम जी की कथा सुनाएँ।
पार्वती जी ने शंकर जी विविध प्रश्न किये जिनके उत्तर में भगवान शंकर ने उनको राम कथा का अधिकारी जान कथा सुनाना प्रारंभ की।
जगदम्बा पार्वती के विविध प्रश्न कुछ इस प्रकार थे कि ब्रह्म राम को अवतारलेने की क्या जरूरत पड़ जाती है, भगवान राम के बाल्यावस्था का वर्णन करें। भगवान राम को अपना राज्य छोड़कर जंगल क्यों जाना पड़ा ??उन्होंने रोष में आकर रावण को क्यों मारा? आदि अनेक प्रश्न शंकर जी से कह डाले। आखरी में मां पार्वती ने यह भी कह डाला प्रभु अगर हमसे कुछ छूट रहा है तो कृपा करके हमारी दुर्बुद्धि को माफ करके हमें वह सब भी कह डालें।
शंकर जी जगदंबा पार्वती की बातों को सुनकर अति प्रसन्न हुए और उनके हृदय में पार्वती के सभी प्रश्नों का साक्षातकार होने लगा और यह सब दर्शन कर वे भाव विभोर हो गए, उनकी आंखों से प्रेम धाराएं बहने लगी।
पार्वती जी को इस कथा का अधिकारी जान उनसे कहने लगे हे देवी आपने जो प्रश्न किया है वह मानव कल्याण के लिए है। वैसे अजन्मा भगवान को अवतार लेने की कोई आवश्यकता नहीं है किंतु उनके भक्तों के द्वारा श्राप को भोगने हेतु, उनके वरदान को सफल बनाने हेतु उन्हें अव्यक्त से व्यक्त होना ही पड़ता है। भगवान भक्तों के हृदय में विराजते हैं किंतु अगर भक्तों पर, गौओं पर, ब्राह्मणों, पर देवताओं पर...अगर संकट आ जाता है तो उनके कल्याण हेतु हर युग में भगवान अलग-अलग अवतार ग्रहण करते ही रहते हैं।
सत्ययुग में एक बार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सनक, सनंदन, सनातन और सनत्व कुमार को विष्णु लोक जाने का मन हुआ किंतु उन्हें वहां के द्वारपाल जय और विजय ने जाने से रोक दिया। इस वजह से क्रोधित हो उन्होंने जय और विजय को श्राप दे डाली। तुम हमें अपने भगवान से मिलने नहीं दे रहे हो इसलिए तुम लोग राक्षस योनि में जाओ।
तब तक वहां भगवान विष्णु स्वयं आ जाते हैं और चारों कुमारों को देखकर उनसे कहते हैं कि भला किया आपने इन दोनो को श्राप दे डाली। यह दोनों लक्ष्मी जी को भी आने में बाधा पहुंचाने थे अतः आपसे श्राप प्रकार इनका कल्याण ही होगा। यह सब देखकर चारों कुमारों के मन मे दया भाव जाग गयी और श्राप को वरदान में बदल दिया और कहा हे द्वारपालों तुम दोनो अत्यंत बलशाली होंगे और तुम्हारा उद्धार स्वयं नारायण करेंगें। सतयुग में ये दोनो हिरणाक्ष और हिरण्यकश्यप नाम के दो शक्तिशाली राक्षस भाई हुए हिरणाक्ष का उद्धार वराह भगवान ने और हिरण्यकश्यप का उद्धार नरसिंह भगवान ने की।
एक बार जालंधर नाम का राक्षस हुआ जो शंकर जी का ही क्रोधांश था। शंकर जी से ही लडाई ठान ली। शंकर जी उसको मार ही नही पा रहे थे क्योंकि उसकी पत्नी वृंदा सती नारी थी। संतों का मानना है कि सती नारी के पति का मृत्यु स्वयं भगवान भी नही कर सकते।
एक बार की बात है वृंदा भगवान विष्णु को पति के रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी तभी वहाँ जालंधर नाम का राक्षस आया और बोला मैं ही विष्णु हूँ और उसे अपने साथ ले गया। तब से वृंदा उसे ही विष्णु के रूप में सेवा करने लगी। उसका सतित्त्व इतना बड़ा था कि शंकर जी स्वयं जालंधर को मार नही पा रहे थे।
जालंधर माता पार्वती का सतित्त्व भंग करने के लिए उनके पास शंकर जी का रूप लेकर गया किंतु पार्वती जी उसको मुस्कुराते देख ध्यान लगाकर देखी तो पता चला ये तो राक्षस जालंधर है।
वे वहां से भाग कर भगवान विष्णु के पास याचना करने पहुंच गई।
वहाँ पहुंचकर उन्होंने विष्णु जी से कहा भगवान आज हमारे सतित्त्व पर आंच आ गई है जालंधर नाम का राक्षस हमारे सतित्त्व भंग करने के लिए हमारे समीप आ पहुंचा है और उसका नाश भी नहीं हो सकता क्योंकि उसकी पत्नी वृंदा एक सती नारी है, उसका सतित्त्व इतना बड़ा है कि भगवान शंकर भी उसे मार नहीं पा रहे हैं।
इस पर भगवान विष्णु ने कहा हे जगदंबा पार्वती आप निश्चिंत हो जाए मैं उसकी पत्नी का सतित्त्व भंग कर दूंगा जिससे उसका नाश हो जाए।
भगवान विष्णु वृंदा के पास जालंधर का रूप लेकर पहुंच गए, वृंदा अपने पति को देखकर उनको पति सेवा करने लगी और तभी वृंदा का सतित्त्व भंग हो जाने पर जालंधर का प्रभाव मिट जाता है और भगवान शंकर उसके सर को काट डालते हैं और उसका सर वृंदा के पास आ गिरता है।
यह देखकर वृंदा चकित हो जाती है और भगवान विष्णु जो जालंधर के रूप में थे उन्हें देखकर कहती हैं कि आप कौन हैं? और यह सर हमारे पति का कैसे है?
यह सब देखकर भगवान विष्णु ने कहा कि मैं विष्णु हूं और सारी बात कह डाली। वृंदा को उसे समय गुस्सा आ जाता है और वह क्रोधित होकर भगवान विष्णु को श्राप दे डालती हैं। वह कहती है कि आपने हमारा क्षलपूर्वक सतीत्व भंग किया है और इसमें हमारा कोई अपराध भी नहीं था।
इसलिए आप पत्थर के हो जाए और यह कहकर वृंदा क्रोधाग्नि में जलकर राख हो जाती है और भगवान विष्णु यह सब देखकर उसी राख में लोटपोट होने लगते हैं। धीरे-धीरे वह एक शीला का रूप धारण कर लेते हैं।
विष्णु लोक खाली हो जाता है भगवान विष्णु के बारे में जब यह बात सबको पता चलती है कि भगवान विष्णु शिला हो गए हैं तो सबको चिंता होने लगी और सब उनको वापस लाने के उपाय में जुट गए कि कैसे वैकुंठ लोक में विष्णु जी को पुनः लाया जाए?
इस पर ऋषि मुनियों ने कहा जब तक वृंदा के अपमाणित राख में भक्ति बीज का प्रवेश नही होगा तब तक भगवान विष्णु शीला बने ही रहेंगे।
इस पर तीनों देवियां (लक्ष्मी पार्वती और सरस्वती)ने अपनी भक्ति बीज को उनकी राख में प्रवेश करा दिया।
लक्ष्मी जी के भक्ति बीज से मालती नामक पुष्प हुआ, पार्वती जी के भक्ति बीज से तुलसी उत्पन्न हुई और सरस्वती जी के भक्ति बीज से आँवला उत्पन्न हुआ और तब विष्णु भगवान फिर से वैकुंठ लोक पहुंच गए।

आगे के भाग में नारद जी का श्राप, स्वम्भू मनु की तपस्या का फल आदि का वर्णन होगा।

बोलिये सियावर रामचंद्र की जय🙏
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