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Bureaucracy role in Democracy
लोकतांत्रिक चयनित प्रणाली में पदाधिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका

ऐतिहासिक अध्ययन हमारे पास केवल लगभग 2500 वर्ष का है। अर्थात सारा विश्व लगभग 2500 वर्ष का ही इतिहास जानता है। लेकिन हम जानते हैं कि 2500 वर्ष से पहले एक ऐसा भी समय था जब राजतंत्र था और राजतंत्र में पदाधिकारियों (ब्यूरोरोक्रेसी) की भूमिका अल्प संख्या में केवल निमित्त मात्र ही हुआ करती थी। राज्य सत्ता, ज्ञान सत्ता और विज्ञान सत्ता सब केवल एक शासक की ही योग्यताओं के द्वारा संचालित होती थी। लेकिन समय बीता। सतयुगी और त्रेतायुगी राजतंत्र प्राय:लोप हो गया। उसके बाद द्वापरयुग से भी राजतंत्र चला। लेकिन राजतंत्र की प्रणाली में मौलिक परिवर्तन आ गए। राज सत्ता, ज्ञान सत्ता और विज्ञान सत्ता तीनों का स्वरूप अलग अलग रूप से अस्तित्व में आया। व्यवस्था में एकीय सत्ता के बजाय तीन सत्ताएं आ गईं। इस बीच साम्यवाद भी आया। सामंतवाद भी आया। उसके बाद लोकतंत्र आया है। लोकतंत्र की व्यवस्था के बीच में ही राजतंत्र की स्थापना हो रही है।

भारत देश में वर्तमान समय वे दिन चल रहे हैं जब विगत आठ दशकों से लोकतन्त्र की शासन प्रणाली चल रही है। लोकतंत्र में संवैधानिक व्यवस्था को (सत्ता को) संभालने की जिम्मेवारी अधिकांश मत प्राप्त करने वाले चयनित उम्मीदवार को दी जाती है। उच्च शासन के पदाधिकारियों की मुख्य योग्यता उनको प्राप्त अधिकांश मत ही होते हैं। यही उनके चयन ही उनकी योग्यता होती है। इसके इलावा संवैधानिक व्यवस्था के पद की योग्यता का उनका कोई अन्य ऐसा क्रिएटेरिया नहीं होता है जिसका सीधा सम्बंध बौद्धिक योग्यता से हो। उनके लिए सिर्फ अधिकांश मतों से चयनित होना ही पर्याप्त माना जाता है। लेकिन इस प्रकार की चयनित प्रणाली के कुछ नकारात्मक पहलु होते हैं। ऐसी स्थिति में अधिकारी तन्त्र (ब्यूरोक्रेसी) की योग्यता का अभिनय (रोल) मुख्य हो जाता है।


प्रशासनिक व्यवस्था में ऐसी चयनित प्रणाली नहीं होती है। प्रशासनिक व्यवस्था को संभालने की जिम्मेवारी भी चयनित उम्मीदवार को दी जाती है। लेकिन उसका क्राइटेरिया अलग होता है। उसके चयन के तरीके बौद्धिक योग्यता की प्रामाणिकता के आधार पर होते हैं। ब्यूरोक्रेट्स चयनित होते हैं उनकी बैद्धिक योग्यता के आधार से। शासन को संचालित करने के लिए बौद्धिक योग्यता भी अनिवार्य होती है जोकि सतयुगी व्यवस्था में सत्ताधारी जिम्मेवार व्यक्ति में स्वाभाविक रूप से और अनिवार्य रूप से हुआ करती थी।

लेकिन समय ने पलटा खाया। वर्तमान समय में लोकतंत्र में सभी सत्ताधारी लोगों की वह स्थिति नहीं है कि उनमें अनिवार्य सभी योग्यताएं हों। इसलिए ऐसी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में अधिकारी तन्त्र (दफ्तरशाही तंत्र/ब्यूरोक्रेट्स) की अत्यंत महत्वपूर्ण और अनिवार्य भूमिका हो जाती है। मौजूदा राजनैतिक परिस्थितियों में ऐसा जहां तहां देखने में आता है कि बिना ब्यूरोक्रेट्स के मार्गदर्शन के चयनित शासकगण या मंत्रीगण बिल्कुल अशक्य होते हैं। वे कुछ भी करने की स्थिति में नहीं होते हैं। क्योंकि करने के लिए सत्ता के कर्णधार में इतनी तो बौद्धिक प्रखरता की योग्यता तो होनी ही चाहिए कि वर्तमान समय की क्या आवश्यकता है और वर्तमान परिस्थिति के अनुसार हम क्या हैं और हमें सामान्यजनों की व्यवस्था के लिए उचित और संभावित रूप से क्या करना चाहिए है और क्यों करना है। सभी सामान्य लोगों के लिए जो कुछ करना है उसके लिए हमारे मानदंड क्या क्या होने चाहिएं, उसका वैसा पूरा ज्ञान तो एक शासक को स्पष्ट रूप से होना ही चाहिए। उसके लिए कार्य प्रणाली क्या और कैसे हो, वह विषय बाद में आता है। प्रजातंत्र की सत्ता के कर्णधारों को ऐसे अनेक विषयों के बारे में एजुकेट (शिक्षित) करने का काम भी ब्यूरोक्रेट्स को ही करना पड़ता है। इसलिए लोकतंत्र में शासन चलाने के संदर्भ में अधिकारी तंत्र (पदाधिकारियों / ब्यूरोक्रेट्स) आंतरिक अहम भूमिका होती है।

हालांकि राजतंत्र प्रणाली और लोकतंत्र प्रणाली दोनों व्यवस्थाओं की प्रणालियों में बहुत अन्तर है। लेकिन दोनों की तुलना करने पर ऐसा लगता है कि वर्तमान समय राजतंत्र प्रणाली और लोकतंत्र प्रणाली की व्यवस्था की कैमिस्ट्री (गुणवत्ता) में कुछ समानता है। राजतंत्र प्रणाली, साम्यवाद प्रणाली या प्रजतंत्र प्रणाली आदि जितनी भी प्रणालियां होती हैं, उन सबके बनने बनाने का केवल इतना ही उद्देश्य होता है कि समाज, देश या विश्व में सुव्यवस्था हो। एक व्यवस्था के अंतर्गत और अन्य भी अनेक व्यवस्थाएं बनें और वे सुचारू रूप से चलें ताकि सभी का विकास हो और सबका अमन चैन का शान्ति पूर्ण जीवन चलता रहे। राजनैतिक, शासनिक या प्रशासनिक प्रणालियों के द्वारा सबको आंतरिक और जीवन उपयोगी व्यवस्था मिले - यही इन शासन प्रणालियों (तंत्रों) का उद्देश्य होता है।

तात्पर्य यह हुआ कि लोकतन्त्र प्रणाली में देश के सभी लोगों को सेवा प्रदान करने के लिए अधिकारी तंत्र पर बहुत कुछ निर्भर करता है। लोकतांत्रिक मौजूदा स्थिति में अधिकारी तन्त्र को बहुत बुद्धिमान और ईमानदार होना चाहिए। उनमें केवल बहु आयामी बौद्धिक या आध्यात्मिक ज्ञान ही नहीं हो, अपितु उनमें शुभ श्रेष्ठ भावनाऐं भी लबालब भरी होनी चाहिए। उनमें भी एक राजा की तरह ही सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की भावना होनी चाहिए। यदि अधिकारी तन्त्र के पदाधिकारियों की अपनी ही कुछ अयोग्यतायें और कमी कमजोरियां रहती हैं, या उनमें अपना ही कुछ निहित स्वार्थ रहता है, तो फिर हम समझ सकते हैं कि लोकतंत्र की कितनी बदतर स्थिति होगी। तब तो लोकतंत्र या राजतंत्र प्रणाली की गुणवत्ता बढ़ने की बजाय घटती ही है। परिस्थितिगत, स्थितिगत, समय और स्थान के अनुसार यदि इस विश्व ड्रामा को समझें तो पता चलता है कि यह विश्व ड्रामा बहुत वंडरफुल और रहस्यमय तरीके से बना हुआ है। जो भी चैतन्य आत्मा इसके अन्दर प्रकृति का देह धारण किए हुए है, उसे यह पूरा समझ में या अनुभव में नहीं आ सकता। कोई उपाय नहीं है। मान लीजिए कि जब भी जिसे भी यदि यह समझ में आ भी जाता है तो वह इसे पूरा समझा नहीं सकता। ज्ञानीजनों और योगीजनों के द्वारा ज्यादा से ज्यादा इतना ही किया जा सकता है कि स्वयं की चैतन्यता (आत्मिक जागरूकता) की सीमा को ज्यादा से ज्यादा सीमा तक बढ़ाया जा सकता है।