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मन का कमरा
मैं हर किसी को अपने घर में घुसने की इज़्ज़त नहीं देती, ये मेरी ज़िन्दगी मेरा घर हैं।
किसी को अपनी ज़िन्दगी में शामिल करना ठीक अपने घर में घुसने की इज़्ज़त देने जैसा ही हैं। कभी कोई दोस्त बनकर , कभी कोई रिश्तेदार, कभी हमसफर, कोई बस जानपहचान वाला, या कभी कोई शुभचिंतक बन कर, हमारी जिंदगी में शामिल हो जाता है।
जैसे ही हम उसे खुद अपने से परिचय करने लगते है तो उसे अपनी ज़िंदगी के घर में झांकने के इज़्ज़त देते हैं। घर जो हमारी पहचान होता है, ख़ुशी और दुख की तस्वीरें होती है। अपनों की परछाई, कभी बनावटी तस्वीरें । जहां किसी की रसोई में कभी अच्छाई का तो कभी बुराई का अनाज मिलेगा, जिसके नलकों में कभी गुस्से का पानी बहता है, कभी खुशी का , कभी एहसास-ए-कमतरी का...