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रोएगी तो मारूंगी
बचपन में लगी चोट दिखाना आसान होता था। अब कितना मुश्किल होता है ना स्वीकार करना कि चोट लगी है और दर्द हो रहा है।
ज़ख्म पर मरहम लगाने से अधिक मुश्किल होता है, उस ज़ख्म को सबसे छुपाना। बचपन में लगी एक छोटी खरोंच भी रुला देती थी।
सौ बार बताते थे.. 'यहाँ इस जगह लगी है'!
'हाँ! दर्द हो रहा है'!
मगर बड़े होते ही अगर ज़ख्म गहरे भी हों तो उसके दर्द की दवा करने से ज़्यादा उनका छिपाव करना ज़रूरी लगने लगा है।
जब बचपन की चोट पर डॉक्टर ने डिटॉल लगाया होगा तो चीख निकली होगी.. अब जब ज़ख्म को कुरेद कर हरा छोड़ देते हो और सिसकियों को दांतों के तले भींच लेते हो, तो चीख कमरे की दीवार तक पहुंचती है क्या..?
पहुँचती होगी.. मगर आँसुओं की आड़ में दर्द और चीख की तस्वीरें नज़र नहीं आती होगी। वो खिड़की जो बंद है उस पर जाले और धूल नहीं.. चोट के उभरते निशान है जो रंगीन होते हुए भी बहुत बेरंग और भद्दे हैं।
क्या घुटन नहीं होती खुद की कैद में..?
ज़ख्म मानसिक हो या शारीरिक कष्टकारी ही होता है।
ज़ख्म पर चीख लेना चाहिए, और दिल भरने पर रो लेना चाहिए। कुछ नहीं तो टीस ही कम होगी और शायद दीवार पर दबी हुई चीख की बनी भद्दी तस्वीर धुल जाएगी।
दर्द का रंग कुछ तो हल्का होगा।
मगर यह आसान नहीं, यह उतना ही मुश्किल है जितना गणित का पहाड़ा।

बचपन में माँ रोते बच्चे को एक चांटा और मार देती थी यह कहकर की रोयेगा तो और मारूंगी।
अब जब रोने की ख़्वाहिश होती है तो खुद को नोच लिया करती हूँ.... 'रोएगी तो मारूंगी'!
मगर इसमें माँ सा प्रेम नहीं।
💔
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