...

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भाव शब्द बंधन
फिर काफिले चलने लगे वो जो सदियों से चलते चले आ रहे हैं
चल रहे हैं आज भी आकर तन्हाइयों में मेरी उतर
मेरे दिल को फिर इक बिसात सा सजाने लगे है़
दिवानगीयों से भरी वो बातें दोहराती चलने लगी है रूह मेरी क्यों
फिर उन्हीं मजलिशो की धड़कनों केंं अफसानों को बार बार दोहराती हैं
मेरे जानने समझने की सारी कोशिशें हार थक जाती हैं और मेरा वजूद खुद को किसी कठपुतले
सा महसूस करने लगता था
टिसते जख्मों से तड़पते जज्बात की बातें थी वहीं दिन थे वही उन्ही रातों को सदीयां दोहराती रहीं थी
वही चांद वही चांदनी का खिलता असर
वहीं दिल वहीं आग वहीं चुभन
और बयां होते अफसानों की अंगड़ाइयों से भरी बातें भी थी वही
देने लगी थी सभी की सभी मुझको वो आवाजें
सम्मोहन के असर से जैसे बेबसी जकड़ लेती है
मैं उन आवाजों की तरफ बेसाख्ता खिंचा चला जाता हूं
खिलती मदनमस्त की खुशबू
और खामोश देख रही थी मुझको वहीं नजरें
जिनकी कशिश से मैं पहले भी कितनी बार घायल हो चुका था आज फिर शायद मुझ खिलौने से
खेलने कोई आतुर हो चुका था

उस उठते चमकते चांद को देखते
गोया जी उठ रहे हों फिर अलिफ लैला
और लैला मजनू के किस्से
रात रानी जगा रही थी उन हसरतों को
खुश्बू भरी महकती आग से शायद बिखर जाना चाहती थी हर दिल के गहरे तक असर से अपने बेसुध सी करती , दिलरूबा पे फेरती उन उंगलियों की हरकतों के जादू से तरन्नुम से भरी वो आवाजें उभौरते राग जीवंत हो उठते थे मधुमय उभरते उन खनक दार सुरों से सजे रागो के बंधनों में बांधती रूह में न जाने प्रेम के जाने कितने रंग समुंदर की
गहरी उठती पर्वतों को छुती लहरों सी आ टकराती
नृत्य की आतुरता जगाते हुए सप्तरंगो से भरे साजों की आवाजों से अपने कदम ताल से विमुग्ध
करती हसीनों के इशारे और खेलने को उत्सुक नज़रों से एक महकती रौशनी माहौल को सुरमयी
बना रही थी।
© सुशील पवार