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पवित्र प्रेम

© Nand Gopal Agnihotri
छुप छुप कर मिला करते थे दोनों, वर्षों से यह सिलसिला चल रहा था ।
दोनों जानते थे कि वे नदी के दो किनारे हैं, जो कभी एक नहीं हो सकते । क्योंकि बहुत सी विषमताएं थीं, न जाति एक न हैसियत ।
सहपाठी होने से क्या होता है, परिवार या समाज जाति और हैसियत की ही प्रधानता देता है ।
सबकुछ जानते हुए भी मिला करते थे, और भविष्य की कल्पना किया करते थे । बात छुपती कहाँ है, दोनों के परिवार को भी पता था ।
लेकिन पिता तो पिता है, कैसे अपने कलेजे के टुकड़े को अनजान हाथों में सौंप दे ।
अतः गुप्त परीक्षक बन परखा करते थे ।
जब पूरी तरह आश्वस्त होने गये तब दोनों के पिता ने योजना बनाई कि गुप्त रूप से इन्हें प्रणयसूत्र में बांध दिया जाए ।
और उस दिन वह शुभ घड़ी आ ही गयी जब दोनों के परिवार रास्ते में मिल गए ।
देखते ही दोंनो डर कर पसीने पसीना हो गए,
जान अब क्या हो ?
उन्हें घबराया देख एक स्वर से दोनों के पिता बोल उठे, अब घबराने की कोई बात नहीं ।
हम लोगों ने तय किया है कि अब यह लुकाछिपी बंद हो, और तुम लोग एक हो जाओ ।
और दोनों ही पैरों पर गिर पड़े ।