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" प्रेम की अज़ीब दास्तां "
दो बरस अध्यापन करते हुए कब बीत गए पता ही नहीं चला। अब लीडिया बारह दर्जे में पहुंच गई है, वह पढ़ने में सबसे औवल है, साथ ही शिक्षिका भी उससे बहुत प्रसन्न है।इसका श्रेय
उसके कर्मनिष्ठ शिक्षक विलार्ड को जाता है। उनके मन में कहीं न कहीं लीडिया के प्रति आकर्षण बढ़ता ही जा रहा था किन्तु वे इस बात से असमंजस में थे कि वे कहीं कोई नैतिक अपराध तो नहीं कर रहे हैं। वे दोनों एक दूसरे से ऐसे पढ़ते और पढ़ाते हैं जैसे कोई दोस्त या कोई और ही है।

आज की शाम कुछ अलग ही लग रही है, शाम को पौने पांच बजे हैं। उसने कहा कि मैं कुछ कहना चाहता हूं पर कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा हूं और पता नहीं तुम मुझे अच्छा या बुरा समझ सकती हो। उसने पूछने की जिद्द करने लगी कि बताओ क्या कहना चाहते हैं आप। मैंने दबे स्वर में मना कर दिया। अगले दिन फिर वह मुझसे बोली कि आप कल कुछ कहने वाले थे। आज तो आपको कहना ही पड़ेगा। अब उसके मन में शंका और डर का द्वंद चरम सीमा पर तैनात थी कि यदि इसने इनकार कर दिया या फ़िर कहीं नाराज़ न हो जाए। आख़िर में वह साहस जुटाते हुए अपना बनाने का प्रस्ताव रख दिया। उसके चेहरे पर एक विचित्र भाव नज़र आ गया और बोली कि मैं क्या कहूं।

अगले दिन जब विलार्ड पहुंचा और उसने देखा कि उसके मुख मंडल पर एक गम्भीरता और शायद वह बहुत ही क्रोधित मालूम प्रतीत होती है। मेरा अंदाज़ा एकदम सटीक निकला फ़िर भी मन में एक भय ज़रूर था। मैं नज़रें मिलाने का साहस मुझमें न था। वह बोली,"आपको यह शोभा नहीं देता कि आप एक शिक्षक हैं और आप इस तरह की बात करते हैं। आपको शर्म नहीं आती की एक छात्रा को ऐसा करते हैं।" कल से आप नहीं आएंगे मुझे पढ़ाने। मेरा सिर लज्जा और आत्म ग्लानि से लहूलुहान हो गया। मैं मन ही मन अपने को एक तुच्छ और पापी समझने लगा। मैं जैसे तैसे करके वहां से निकल गया और बाहर निकल कर ख़ूब फूटफूट कर रोने लगा। ये मैंने कैसा अपराध कर डाला। हे प्रभु मेरे इस अपराध को कभी क्षमा मत करना क्योंकि मैंने ऐसा गुनाह किया है कि माफ़ी का अधिकारी नहीं हूं।

कुछ समय बीत जाने के बाद भी उसको भुलाने की ख़ूब कोशिश की पर मुझे आजतक इसका अफ़सोस है। स्नातक स्तरीय पढ़ाई के पश्चात उसके पिता ने एक सरकारी नौकरी वाला पति से बड़े धूमधाम से विवाह कर दिया। वह अपने मायके में कभी एक रोटी नहीं बनाई क्योंकि वह अपने घर में इकलौती बेटी थी किन्तु ससुराल में उसे बीस पच्चीस लोगों को खाना बनाना, घर का सारा काम करना। काम करते करते थक जाती थी और सबको खिलाने के बाद वह अपने देवरानी और जेठानी के साथ मिलकर खाना खाती।

कुछ समय तक तो सब ठीक ही चल रहा था और उसके पति को फ़िज़ूल खर्ची और शराब पीने की लत ने लीडिया की खुश हाल जिंदगी में उथल पुथल सा हो गया। अक्सर उसे परेशान करता और उससे कहता जाओ अपने बाप से दो लाख रुपए ले कर आना। और अपने पिता से रुपए मांगती और ले जा कर दे देती। अब उसके पति की दिनचर्या बन गई थी। आए दिन उसे मारता भी था, उसे तरह तरह के ताने बाने कसता।

उधर विलार्ड शहर छोड़कर अपने गांव वापस आ गया और वहीं बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने लगा। पूरे तन मन से सबको पढ़ाता। इस तरह से उसका नाम होने लगा कि कोई इस जमाने में भला मुक्त शिक्षा देता है क्या। वह भी अभी सिंगल जीवन जी रहा है। उसके मां बाप ने उसके लिए एक सुन्दर सी लड़की से शादी करना चाहते थे लेकिन वह मना कर देता है और उसे तन्हाई से प्यार हो गया है।

एक तो हद हो गई जब उसने लीडिया को अपने घर से निकाल दिया और कहा कि तुम अब मत आना अगर आना तो रुपए लेकर आना समझी। वह अपने मायके चली आई और सब हाल घर वालों को सुना दी। वह बहुत निराश और उदास रहने लगी। कभी अपने टीचर के बारे में तो कभी अपने पति के रूखे आचरण पर सोचती। पर वह बहुत ही दुविधा में पड़ गई। अब क्या करूं क्या न करूं। जब शाम को गोधूलि बेला में सूरज अपनी चमक का गुरूर धीमा कर रहा था और वह अपने आंसुओं की जलधारा में सराबोर हो रही थी कि उसी समय उसकी दादी मां ने लीडिया को रोते देखा।
क्या बात है बेटी तू इतना क्यों आंसू बहाए जा रही है। क्या तू अपनी दादी मां को नहीं बताएगी।

दादी मैं अब अपने ससुराल नहीं जाऊंगी कभी नहीं! पर बेटी ससुराल तो तेरा ही है तो भला क्यों नहीं जाएगी। दादी मैंने बहुत बड़ी ग़लती कर दी। मैं नासमझ थी जो अपने आने वाले कल को न देख पाई। दादी आज मैंने सबकुछ खो बैठी हूं और अब मेरे पास क्या। सिर्फ़ मायूसी के सिवा कोई और रास्ता नहीं है।
" मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं तू क्या कह रही है।" दादी ने कहा। बता बेटी मैं तेरी दादी हूं और जब तू छोटी सी बच्ची थी तो सब कुछ बताती थी। दादी मैंने एक नहीं बल्कि एक से अधिक खो दिया है। मैंने एक शिक्षक, एक सच्चा प्रेमी, एक पति, एक पथ प्रदर्शक सब तो खो दिया दादी मां। यह सुनते ही दादी के आंखों में भी आंसू निकल पड़े।

हां बेटी तू ने सच कहा। पर अब वो न जाने कहां होंगे। लेकिन तू परेशान मत हो। मैं कोई उपाय ज़रूर खोजती हूं। मैं तुझे उनसे अवश्य मिलन कराऊंगी। बहुत कोशिशों के बाद उसकी दादी और लीडिया आख़िर उस गांव पहुंच गए किसी तरह पता करते करते। अभी अभी बच्चों की ट्यूशन से छुट्टी हुई है। दादी ने एक लड़के से विलार्ड के घर का पता पूछ लिया। और उसी पते पर उसके घर पहुंच गए। विलार्ड के माता पिता ने उनका अतिथि सत्कार किया और कहा कि वह आते ही होंगे। उसी समय विलार्ड भी आ जाता है। लीडिया और उसकी दादी दोनों को देखते ही आश्चर्य होता है। इस तरह मेरे इस ग़रीब आदमी के घर आने का क्या कारण हो सकता है। ज़रूर कोई बात होगी।

उसे देखते ही लीडिया की आंखों में आसूं के साथ पछतावे की लकीरें उभर आई। मुझे माफ़ कर दो। मैं तुम्हें समझ न सकी। क्या तुम मुझे उतना ही ज्यादा प्यार करते हो जितना पहले करते थे। मैं कितनी ख़ुदग़र्ज़ लड़की हूं जो सच्चे प्यार को इसलिए न समझ सकी क्योंकि तुम एक शिक्षक थे। क्या एक टीचर किसी से प्यार नहीं कर सकता।
किसी को अपना नहीं बना सकता। उसे टीचर समझ कर उसे इतनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी। आज मैं बहुत लज्जित हूं। आज मैं तुमसे मांगू तो क्या मांगू।

नहीं लीडिया इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नही है। बस ये तो समय का खेल था । मैं हर पल तुम्हारी यादों की डोर से बंधा रहा। क्या तुम अब मुझे अपनी सांसों को डोर से नहीं बांधोगे। दोनों इक दूजे के गले से लिपट जाते हैं और बिछड़ने के दर्द को आंसुओं से महसूस कर रहे हैं। दोनों ने यह एहसास किया कि " प्रेम की अज़ीब दास्तां " होती है।


'Gautam Hritu'





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