...

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मुझे डर लगता है
मुझे डर नहीं लगता
किसी पर नाराज़ होने से
किसी का मुझ पर नाराज़गी जताने से
या किसी को कुछ कह देने से
या उसको कुछ कह देने से
मुझे डर लगता उसके बाद
उस वेदना से गुजरने में
गहरे और गहरे होते विचारों से
छोटी छोटी शिकायतों के
विशाल बनते संमदर से
और उस में धीरे धीरे गहरे उतरने से
और बहुत देर लग जाती है मुझे
तैर के ऊपर आने में
मुझे डर लगता है
खुद में इस तरह खो जाने में
थकी थकी सी हो जाती साँसे
और बोझिल सा हो जाता दिल
डर लगता है मुझे अब ऐसा हो जाने से

और फिर याद करती हूँ मैं उसे
जो उबार लेता है मुझे
जी के जंजालो से
निकाल लेता है मुझे किसी दरिया से
उसकी मौजूदगी नहीं पर
कानों में गूँजते अल्फ़ाज़ उसी के
जो तैर कर उपर ले आता मुझे
थकन से बने ख्यालों से
और मैं उसका
शुक्रिया कर मन ही मन मुस्करा देती
अपने डर से बाहर आ जाती
मैं फिर जी उठती
उसके अहसास से
© बावरामन " शाख"