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तेरा मेरा सच
नविता की शादी की गहमागहमी कम हो गई थी। विदाई के बाद रिश्तेदारों की भीड़ छंटने लगी थी।
ज्यादातर या तो रवाना हो गए थे या तैयारी में थे। वैसे भी, आजकल कहां रिवाज रहा, कई-कई दिनों तक विवाह के घर में जमावड़े का। अब तो ज्यादातर लोग सीधे वेन्यू पर पहुंचते हैं, शगुन दिया, फ़ोटो खिंचवाई, खाना खाया और हो गया रिश्ते का निबाह!
संपदा भी अपनी भांजी के विवाह के लिए खास दिल्ली से नागपुर आई थी। सुनील भइया चचेरे भाई थे उसके।और नविता उनकी इकलौती लाडली बेटी। हां, समय की व्यस्तता के चलते ना ही पतिदेव, और ना ही बच्चों में से कोई साथ आ पाया था उसके। पर विवाह में शामिल होने की उसकी ललक को देख पति शिशिर ने ही समझा बुझा कर अकेला भेज दिया था।
नविता के लिए सुंदर सा उपहार अपने सूटकेस में संभालते हुए उसे सहसा ही रुपाली भाभी (नविता की माता) का ख्याल हो आया। थोड़ी अचकचाहट के बाद, उसने भाभी के लिए भी एक सुंदर सी साड़ी अलग से रख ली। भाभी से मुलाकात का ये मौका वर्षों उपरांत मिल रहा था उसे। जीवन की भागदौड़ में व्यस्त, पंद्रह साल कहां खर्च हो गए, समझा ही नहीं।
विवाह के सभी रीतोरिवाज़ अच्छे से संपन्न हुए थे। सभी रिश्तेदारों को सुंदर भेंट के साथ विदा किया रुपाली भाभी और सुनील भइया ने। संपदा ने दो दिन रुक कर जाने का कार्यक्रम बनाया था, अतः वो भाभी का हाथ बंटाती रही, सारे कार्य पूरे करने में। बीच-बीच में वो सहसा भाभी को गौर से देखती, जैसे कुछ तोल-मोल रही हो और पूछे जाने पर सर झटक कर टाल देती।
विदाई को दो दिन हो गए थे। काम भी सब निबट चुके थे लगभग। रुपाली भाभी चाय का कप ले कर बालकनी में डली हुई कुर्सी पर पसर गईं। संपदाने मौका देखा तो वो भी पास आ कर बैठ गई। दोनों मौन रहकर बाहर देखतीं और चाय का घूंट लेती रहीं। कभी कभी मौन बहुत सुंदर हो उठता है, थकान से निजात दिलाने वाला। पर कभी कभी, मौन असहनीय हो जाता...