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धंधेवाली


खुशनुमा मौसम था। आफिस में ज्यादा काम न होने के कारण आफिस से जल्दी निकल कर जल्दी घर पहुंचने की कोशिश थी। सोचा आज डिनर में कुछ स्पेशल हो जाये। इसी सोच में जा ही रहा था कि तभी fm पर गाना बजा, "जिंदगी एक सफर है सुहाना"। मन ही मन आनंदित होते हुए सोचा, शायद इसे ही कहते हैं, सोने पर सुहागा होना। आनंद एकदम चरम पर था। मैं जल्दी से घर पहुंचना चाहता था पर साथ ही ये माहौल, ये पल भी अच्छे से जीना चाहता था।
सहसा मेरी नजर एक लड़की पर पड़ी। उम्र शायद 28 से 30 के बीच होगी। बिखरे से बाल, मैले कुचैले कपड़े,सीने से दुपट्टे से सहारे एक नवजात शिशु को टांगे प्रश्नबोधक स्थिति में खड़ी थी। उसकी नजर भी मेरी धीमी पड़ती रफ्तार गाड़ी पर पड़ी और वो चेहरेओर उम्मीद और आंखों में चमक लिए मेरी गाड़ी की ओर चल पड़ी। मैंने गाड़ी रोकी और धीरे से खिड़की के शीशा नीचे किया। मेरी नजर उस शिशु पर टिक गई। कितनी मासूम और उम्मीद भारी आंखें थी उस बच्चे की। ऐसा लगा मैं उसकी आँखों में डूबता जा रहा हूँ। एक क्षण को खो से गया था मैं। मेरी तंद्रा उसकी आवाज से भंग हुई। उस लड़की ने कहा, कुछ दे दो साहब। कल से भूखा है बच्चा। मेरा तो जैसे दिमाग ही काम नहीं कर रहा था। जाने कहाँ मैं खोया था। मैंने उस बच्चे के चहरे से नजर न हटाते हुए गाड़ी के डैशबोर्ड से 10 ले 2 सिक्के निकाले और उसकी हाथ मे दे दिए। इस पूरे वाकये के दौरान मेरी नजर उस बच्चे से हट नहीं पाई। ऐसा लग सब कुछ खुद ब खुद हो रहा है। खिड़की का शीशा ऊपर चढ़ाते हुए मैंने गाड़ी आगे बढ़ाई। फिर सहसा ब्रेक लगाया क्योंकि वो लड़की जो पैसे लेने के बाद जा रही थी, वापस मुड़ कर मेरी तरफ आयी।
शायद मैं भी उस बच्चे को थोड़ी देर और देखना चाहता था। मेरे मन का माहौल बदल चुका था। fm का गाना बहुत धीमे सुन पा रहा था मैं। मैंने गाड़ी ला शीशा फिर नीचे किया और उस बच्चे की मासूमियत निहारने लगा। एक हल्की सी आवाज आई कानों में, साहब कुछ और पैसे चाहिए। एक पल को मेरा संपर्क टूटा उस बच्चे से और उस लड़की की तरफ देखा मैंने। वो लड़की अपना दुपट्टा सरकाते हुए, अपने होठों को दाँतों से काटते हुए मुझे आंखों से इशारे से कहीं चलने को बोल रही थी। मैं शायद किसी और धुन में ही था। उस दो पल के विचलन के बाद मैं वापस उस बच्चे को देखने लगा। धीरे से पर्स में से 500 का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ा दिया।
न जाने उसे क्या हुआ, वो अपना दुपट्टा वापस ठीक करने लगी और हाथ जोड़कर कहने लगी, साहब! मैं धंधेवाली नहीं हूं। बस इस बच्चे की तबियत खराब है इसलिए पैसे चाहिए थे। और ज्यादा पैसे वैसे ही कमा सकती हूं। उसकी आँखों के आंसू शायद उसकी गवाही दे रहे थे लेकिन मैं अब भी निःशब्द था। बस सर हिलाकर उसे 500 रुपये को नोट लेने का इशारा किया।वो मासूम अब मुझे देख धीमे धीमे मुस्कुरा रहा था।
वो लड़की शायद ग्लानि और जरूरत के भावमें दबी पैसे लेकर कृतज्ञता भरे नजरों से पीछे जाने लगी।
गाड़ी का शीशा फिर ऊपर हो गया था। गाड़ी अपने गंतव्य को चल पड़ी थी। fm पर गाना बज रहा था पर कौन सा ये याद नहीं। भाव शून्य थे, न माहौल समझ आ रहा था और न ही घर जाने की जल्दी थी। कई सारे सवाल मन में कौंध रहे थे। लेकिन जवाब ढूंढने की कोशिश नहीं थी मेरी। शायद मन भर गया था।

✍️ शैल
© शैल