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स्त्री.. पुरुष... एक इतिहास..
एक समय था, जब स्त्रियों को संगिनी के रूप में हासिल करना बड़ी प्रतिस्पर्धा का कार्य था। तब यह सहज एवोल्यूशनरी चाहना पुरुष के मन में आयी कि बल, पौरुष और पराक्रम से हासिल हुई स्त्री उसकी इज्जत करे, सिर्फ उसकी बन कर उसे परमेश्वर का दर्जा दे, उसकी भक्ति करे। इस व्यवस्था से स्त्री को भोजन/आश्रय उपलब्ध कराते पुरुष का अहं भी संतुष्ट, परिवार नामक संस्था भी संतुलित रही।
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अब धीरे-धीरे आधुनिक काल आया। स्त्रियां भ्रष्ट हुईं, परमेश्वर पदच्युत हुए, भक्तिकाल का अंत हुआ। आज की नामाकूल महानगरीय स्त्रियां भरण-पोषण उपलब्ध कराने के आधार पर मर्दों को परमेश्वर का दर्जा देना ही नहीं चाहती, बराबरी के हक की मांग करती हैं। मन-वाणी-कर्म से ये मर्द के सामने दबना ही नहीं चाहतीं। इनके देखा-देखी छोटे शहर की लड़कियां भी समानतावाद का झंडा बुलंद कर रही हैं।
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बेचारा मर्द क्या करे। मन में तो वही परमेश्वर कहलाए जाने की आदिम चाह, पर इन कुलनाशिनियों से ज्यादा चू-चपड करे तो कानून का भय, जो हमेशा स्त्रियों के पक्ष में रहता है।
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विडंबना के इस दौर में बिल्ली के भाग से छींका फूटा, बड़ी मुश्किल से एक उम्मीद की किरण दिखी। सार्वजनिक तौर पर एक बड़े आदमी की पांव छूती बीवी में पुरूष को अपनी साख वापस पाने का मौका दिखा। उस पांव छूती स्त्री को संस्कारों की मूर्ति घोषित किया गया। छद्म नारीवादियों को लताड़ कर पांव छूती महिला को सनातन का उच्च प्रतिमान घोषित किया गया।
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अब बल-पौरुष-पराक्रम से हीन बेचारा पुरुष संस्कारों और परंपरा की ही दुहाई देकर अपना सम्मान वापस चाहता है। तो क्या गलत करता है?
परमेश्वर की पदवी से अपदस्थ हुआ अभागा पुरुष इतना भी नहीं कर सकता क्या?
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वैसे यह भी बड़ा रोचक प्रश्न है कि संसार भर की स्त्रियों के "जानकी" हो जाने की चाह रखने वाला पुरुष सर्वप्रथम स्वयं "राघव" बनने का प्रयास क्यों नहीं करता?