Beti : Meri kahani
Meri kahani
आई हूँ अंधेरे में मैं, चाहत है उजाला पाने की
है रास्ते मेरे पथरीले क्योंकि, औरत हूं मैं इस समाज में
दामन छल्ली है मेरा, ऐसे समाज के रिवाजों से
सोच है छोटी मेरे लिए, है परेशानियाँ मेरे रहने से
मैं ही हूँ जीवन की जोत, मैं ही हूँ पालना
मेरा ही आंचल है दुनिया में, तेरे लिए सबसे महफूज
है दुनिया कई रूपों वाली, दिखाती रूप अनेक
लेती इम्तिहान गहरे कि, ना गुजर सके तुझसे कोई
देखती हूं मैं जब सोच, एक औरत के लिए
टूट जाते हैं अरमान सारे, जीना होता है बत्तर मुझे
है बदलती नहीं सोच, रिवाजों की मेरी आजादीं की
सोचती हूँ तोड़ दूंँ, रिवाजों को या अपनी सासों को
फिर भी मैं चलती हूं, और बस चलती ही जाती हूं
आंखों में लिए अपने सपने, सब तोड़ती जाती हूं
सोचती हूं करूंगी कभी, अरमान पूरे अपने
पर रिवाजों के सामने अरमान दबाते चली जाती हूँ
रिवाजों की परंपरा समाज में बांधी है ऐसी
आजाद परिंदे मन के तुम, बुबते मेरे मजदूरी के बीज
चड़ती है उम्र जब और, बढ़ती है तब परेशानियाँ और
टूटती है आशा तब और, गिरते है आँसू तब और
मिलता नहीं कर्म फल मुझे, फिर समय आता कर्म का
समय कभी बदलेगा चक्र सोचकर मैं चलती जाती हूँ
आई हूँ अंधेरे में मैं, चाहत है उजाला पाने की
है रास्ते मेरे पथरीले क्योंकि, औरत हूं मैं इस समाज में
✍️ अनुभा पुरोहित चतुर्वेदी
© All Rights Reserved
आई हूँ अंधेरे में मैं, चाहत है उजाला पाने की
है रास्ते मेरे पथरीले क्योंकि, औरत हूं मैं इस समाज में
दामन छल्ली है मेरा, ऐसे समाज के रिवाजों से
सोच है छोटी मेरे लिए, है परेशानियाँ मेरे रहने से
मैं ही हूँ जीवन की जोत, मैं ही हूँ पालना
मेरा ही आंचल है दुनिया में, तेरे लिए सबसे महफूज
है दुनिया कई रूपों वाली, दिखाती रूप अनेक
लेती इम्तिहान गहरे कि, ना गुजर सके तुझसे कोई
देखती हूं मैं जब सोच, एक औरत के लिए
टूट जाते हैं अरमान सारे, जीना होता है बत्तर मुझे
है बदलती नहीं सोच, रिवाजों की मेरी आजादीं की
सोचती हूँ तोड़ दूंँ, रिवाजों को या अपनी सासों को
फिर भी मैं चलती हूं, और बस चलती ही जाती हूं
आंखों में लिए अपने सपने, सब तोड़ती जाती हूं
सोचती हूं करूंगी कभी, अरमान पूरे अपने
पर रिवाजों के सामने अरमान दबाते चली जाती हूँ
रिवाजों की परंपरा समाज में बांधी है ऐसी
आजाद परिंदे मन के तुम, बुबते मेरे मजदूरी के बीज
चड़ती है उम्र जब और, बढ़ती है तब परेशानियाँ और
टूटती है आशा तब और, गिरते है आँसू तब और
मिलता नहीं कर्म फल मुझे, फिर समय आता कर्म का
समय कभी बदलेगा चक्र सोचकर मैं चलती जाती हूँ
आई हूँ अंधेरे में मैं, चाहत है उजाला पाने की
है रास्ते मेरे पथरीले क्योंकि, औरत हूं मैं इस समाज में
✍️ अनुभा पुरोहित चतुर्वेदी
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