...

49 views

मैं अमिर हूँ
बड़ी सुहानी श्याम थी और सभी रास्ते, चौक
भिड में डूबे थें ।
मैं जल्दी में अपना रास्ता काट रहा था ।
तभी, जैसे ही मैने पहली चौक पार की और
रास्ते की दूसरे ओर बढ़ने की सोच ही रहा था, की कोई अचानक मेरे सामने हसते हूए
आया ।
" पेहचाना ", वाह्यात सूरों में उसने पुछा ।
चेहरेपे एक बेफ़िक्र उदासी भी थी ।
चेहरा कुछ जाना पेहचाना लगा ।
फिर सोचा भिक मांगने वाले सभी एक जैसे ही तो लगतें हैं ।
" नहीं ", मैंने रुखे शब्दों में जवाब दिया ।
लाचारी के सिवाय एक तिरस्कार से भरी
पलभर उसके चेहरें पे चमक उठी और वो'
इन्सान चल दिया ।
मैं उसी आदमी के बारे में सोचता आगे अपनी घर की तरफ़ चल दिया । चेहरा पेहचाना सा तो लग रहा था किंतू दिमाग पर जोर डालने से ये नहीं याद आ रहा थ़ा के ये आदमी कौन हो सकता हैं ।
इसी विचारों में अगली वाली चौक भी पार कब कर ली पता ही नहीं चला ।
चौक पार कर के मैं गली में जों ही मुडा
सामने मेरे एक विलायती कार खड़ी हो गई।
कार में से एक शख्स खुद को संभलते बडे आराम से उतर आये ।
मेरी तरफ देखकर जोर से चिल्लातें हूए बोले
" कैसे हो साहिब, पेहचाना के नहीं " ।
फ़िरसे मैं आचरज में डूब गया । आज का दिन कुछ अजीब सा लग रहा था । फिर से मुझे लगा के चेहरा जाना पेहचाना हैं । फिर क्यूँ मुझे कुछ याद नहीं आ रहा है ।
मैं जवाब में सिर्फ उसकी ओर देखता रहा।
वो' फिर से ऊँची आवाज में बोल पडा
" साहब मैं वो' ही हूँ, जिसे आप कभी मदत किया करतें थें " ।
" अब मैं ये सामने वाली बिल्डिंग में रहता हूँ,
खरीद ली है मैंने । कभी आ जाईये गरिब के घर। बडी खुशी होगी मुझे " ।
वो जनाब गाडी से चल पडे । मैं वहीं पर खडा सोच में डूबा था के एकाएक मुझे सब याद आया ।
किसी की दुनिया इतनी कैसे उल्टी पल्टी हो सकती हैं ।
पहले वाली चौक में जो मिला था वो' एक
घमंडी रईसजादा था, जिसकी ये इमारत थी । और जिसने ख़रीद ली वो' एक भिखारी था और सुननें में आया था के उसकी एक भिख मांगने वाली एवं कभी कभी छोटी मोटी चोरी
करने वालों की टोली है।
नियती के इस खेल पर सोचता मैं अपने घर तथा झोपडे में प्रविष्ट हुआ ।
सामने मेरी बिबी बडे प्यार से मुझे देख रही थी । मुस्कूराकर बोली, " चलो जी, हात मुँह धो लो मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ " ।
मन ही मन में मैं सोचता रहा की दुनिया हर दम कितनी बदलती हैं, बदली हैं । और मैं इस से कितना बेखबर हूँ ।
अमिर गरिब हो गए ।
भिख़ारी धनवान बनें ।
और मैं वही का वही रहा ।
वही मैं ,
वही मेरा झोपडा ,
और वहीं बुढ़ी बिबी ,
तभी बडी प्रसन्नता से बिबी ने गरम चाय हाथमें रख दी और प्यार से बोली
" पी लो थके होंगे । अब बूढ़े हो गए हो तुम । अब काम पे जाना बंद करो । जितना हैं हमारे लिए काफी हैं "।
बहोत समाधान हुआ, सुकून मिला,उसकी दो बातें से ।
तभी मुझे एहसास हुआ के दुनियां बदली जरूर हैं, लेकीन मेरी बिबी का प्यार बिलकुल नहीं बदला ।
मैंने सोचा और क्या चाहिए जिंद़गी में ।
अपनों का प्यार ही सबकुछ हैं, और वो तो मेरे पास खूब हैं ।
मैं भी तो अमिर हूँ ।
दिल खिल उठा और मैं जोर से चिल्लाया
यस्स ऽऽऽऽ
मैं अमिर हूँ ।



© Subodh Digambar Joshi