कलंक का बोझ
अत्यंत लावण्यवती थी वो जिसे देखकर ऐसा लगता था जैसा कीचड़ में खिला कमल हो। गुलाब की पंखुड़ियों जैसे उसके सुर्ख़ होंठ, हिरणी से नयन और घुंघराले रेशमी बाल, कोई १५-१६ साल की किशोरी थी। चाँदनी चौक पर स्थित ट्रैफिक सिग्नल के पास सुबह से शाम तक रोज़ भीख माँगकर वो अपना और अपने छोटे से बच्चे का पेट भरती थी। उसकी ग़रीबी और मासूमियत का फ़ायदा उठाकर कोई ज़ालिम उसे कच्ची उम्र में माँ बनाकर चला गया था। मैं हर रोज़ ऑफिस आते-जाते ट्रैफिक सिग्नल पर रुककर उसे कुछ पैसे दे देता और उसके उदास चेहरे पर थोड़ी चमक आ जाती। वो फ़िर आगे बढ़ जाती, किसी और के आगे हाथ फ़ैलाने के लिए। कुछ लोग उसे देखते ही अपनी कार के शीशे चढ़ा...