गांधीजी के आदर्श और प्रासंगिकता -।।
आहार के विषय में गांधी जी के विचार और महत्व
आज जहां देश में इतना मिलावट का भयावह कारोबार और वातावरण है, इसमें गांधी जी के आहार के विषय में विचार बहुत प्रासंगिक हैं। गांधी जी ने अपनी जीवनी में लिखा है कि मैं जीवन में दो गंभीर बीमारियां भोग चुका हूं, फिर भी मेरा यह है विश्वास है कि आदमी को दवा लेने की शायद ही जरूरत रहती है। पथ्य तथा पानी ,मिट्टी इत्यादि घरेलू उपचारों से हजार में से 999 रोगी स्वस्थ हो सकते हैं ।बार-बार वैद्य, हकीम के पास जाने और रसायन शरीर में ठूंसने से जीवन छोटा होता है और मनुष्य शरीर का स्वामी रहने के बजाय उसका गुलाम बन जाता है।
आज सबसे ज्यादा मिलावटी दूध और इससे बने पदार्थ हैं और दूध का त्याग करने से कई बीमारियों से बचा जा सकता है ।गांधी जी का कहना था कि इंसान बच्चे के रूप में मां का जो दूध पीता है, उसके अलावा उसे किसी दूसरे दूध की जरूरत नहीं है। हरे और सूखे फलों के अलावा इंसान का और कोई आहार नहीं है ।बादाम आदि की गिरी मैं से और अंगूर आदि फलों में से उसे शरीर और बुद्धि के लिए पूरी खुराक मिल जाती है ।जैसा आहार वैसी डकार ।मनुष्य जैसा खाता है वैसा बनता है।
सर्वोदय-गांधी जी वैसे तो बहुत कम किताबें पढ़ पाते थे या यूं कहें कि उन्हें पढ़ने का समय ही कम मिलता था। लेकिन जो किताबें पढ़ी, उन्होंने उसे अपने भीतर तक उतारा था। ऐसी ही एक किताब थी "अन टू दिस लास्ट" जिसके लेखक रस्किन थे और वह उन्होंने जोहानेसबर्ग से नेटाल के रास्ते में सफर में पढी थी। उसको पढ़कर उन्होंने लिखा कि जो मनुष्य हम में सोई हुई उतम भावनाओं को जागृत करने की शक्ति रखता है ,वह कवि है। रस्किन की किताब ने गांधी जी कै जीवन में तत्काल महत्व के रचनात्मक परिवर्तन करवाएं और गांधी जी ने गुजराती में उसका सर्वोदय के नाम से अनुवाद कर छपाई और लिखा-
मैं सर्वोदय के सिद्धांतों को इस प्रकार समझा हूं
1-सब की भलाई में ही हमारी भलाई निहित है।
2-वकील और नाई दोनों के काम की कीमत एक सी होनी चाहिए क्योंकि आजीविका का अधिकार सब को एक समान है।
3-सादा मेहनत मजदूरी का ,किसान का काम ही सच्चा जीवन है।
पहली बात मैं जानता था ,दूसरी को धूंधले रूप में देखता था ।तीसरी का ख्याल ही नहीं था। सर्वोदय ने मुझे दिये की तरह दिखा दिया कि पहली बात में दूसरी दोनों बातें समाई हुई हैं।
गांधी जी के सर्वोदय के सिद्धांत को शिक्षा के द्वारा प्रोत्साहन देकर लोगों में जागृति लाकर समाज का भला किया जा सकता है।
असली शिक्षा-
शरीर की शिक्षा जिस प्रकार शारीरिक कसरत के जरिए दी जाती है और बुद्धि की बौद्धिक कसरत द्वारा। उसी प्रकार आत्मा की शिक्षा आत्मिक कसरत द्वारा ही दी जा सकती है। आत्मा की कसरत शिक्षक अपने खुद के आचरण से ही दे सकता है। इसलिए बच्चे सामने हों या ना हों शिक्षक को सावधान रहना ही चाहिए। दूर बैठा शिक्षक भी अपने आचरण द्वारा अपने शिष्यों की आत्मा को हिला सकता है। डरपोक शिक्षक शिष्यों को वीरता नहीं सिखा सकता और व्यभिचारी संयम।
आज जीवन इतनी पेचिदगियों से भरा हुआ है जिसमें मनुष्य के आचार, विचार और आचरण सरलता भरे होना एक ईश्वर का वरदान कहा जा सकता है। यह वरदान गांधी जी ने अपने आचरण, पुरुषार्थ ,सत्य ,अहिंसा को जीवन में अपना कर पाया था और उनसे मिलकर उस समय के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन ने यह कहा था कि-" आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास नहीं होगा कि ऐसा कोई हाड़- मांस से बना हुआ मनुष्य इस धरती पर हुआ होगा।"
आज गांधी जी की सरल जीवन शैली को अपनाकर मनुष्य अपना सहज ही कल्याण कर सकता है।
© Mohan sardarshahari