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गांव-गली (भारतांकित भाग-२)
आज विचार हुआ उस गली में बिताए दिन अंकित करूं जो याद आते हीं गुदगुदी कर जाते हैं। उस मासूमियत और अपनेपन की झलक जो अब सिर्फ कल्पना मात्र लगती है। वो सारे खेल और बचपन के दोस्तों के साथ बिताए दिन।

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गलियों में जो गालियां थीं
वो तक प्यार जाता गई
आस पास की चाची भाभियां
लल्ला हमे बुला गई

अब कहा वो शोर है
जो कानों को चुभता ना हो
अब कहा वो भोर है
जो उठने पर रुकता ना हो

अब लीची और आम
तोड़ के ना खा पाएंगे
पानी और हवा को भी
पैसे से हम चुकाएंगे

मोरी में गिरी गेंद
अब हमसे न उठ पाएगी
हंसिया कुल्हाड़ी खेत
अब हमसे न जुत पाएगी

अब अंकितवा कह कर
हमको कोई नहीं बुलाता है
मां बाप का याद शहर में
हमको बड़ा रुलाता है

पतंग उड़ा कर दिनभर
जब हम काले होकर आते थे
मां बहोत डांटती थी
फिर जमकर व्यंजन खाते थे

गोली खेलने का मजा और था
गिल्ली पेलने का मजा और था
क्रिकेट को कैसे भूल जाएं
घर देर आने का सजा और था

to be continued......

© अंकित राज "रासो"

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