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घुँघरु

मां बिना भी घर कहां घर लगता है। अब तो स्कूल की छुट्टियों के बाद घर जाने की भी जल्दी नही रहती थी। अब कौन बैठा है वहां मेरा इंतजार करते जो थाली में गरमा गरम खाना परोसकर खिलाए। सजल नयनों से नमन भारी कदमों से घर की ओर चल पड़ा।
एक चाभी पापा के पास थी दूसरी नमन के पास।नमन घर पहुंचा और सोफे पर निढाल पड़ गया। पंद्रह दिन हो गए माँ को गए। कैसे रह पाएगा माँ के बिना। कौन खाने के लिए मनुहार करेगा ...कौन गलतियों पर डपटेगा..। झर झर आंसू गालों पर लुढ़कने लगे। तभी उसे घुंघरूओं के बजने की आवाज आई। वह चौंक उठा--' अरे!!...ये तो माँ के घुँघरु की आवाज है.. वह कमरे की तरफ माँ.. माँ करते हुए लपका। घुँघरु की आवाज तो थी..पर माँ नही थी। फिर आंखें सजल हो उठीं।
माँ की पायल पापा ने एकदम खिड़की के पास ही टांग दी थी। जैसे ही हवा चलती .. घुँघरु बज उठते। माँ के घुंघरूओं ने कभी खामोशी पसरने नही दी थी। शायद इसी वजह से पापा ने माँ की पायल ऐसे जगह टांग दी थी जहां से हवा के हर झोंके के साथ माँ के आसपास रहने का आभास होता रहे। हां !!सचमुच माँ मेरे पास थी..वो मुझे देख रही थी अपने घुंघरूओं के जरिये.. ।

मीना गोपाल त्रिपाठी