तीसरा दिन
दर्द से कराहते हुए जैसे ही मैंने हाथ सीधा करना चाहा वह दीवार से टकरा गया। उफ़्फ़फ़! न सीधा खड़ा हो सकते हैं ,ना पैर फैला के लेट सकते हैं ।कितनी छोटी सी है यह काल कोठरी... और काल कोठरी से क्या उम्मीद लगा सकते हो । मेरे ही विचार ने मेरे पूर्व विचार को जवाब दिया ।
दो दिन से इस अंधेरी ,भयानक ,बदबूदार कोठरी में ..जरा सी जगह में ,सिकुड़े पड़े पूरे बदन का रोम-रोम दर्द से बेहाल था ।
आज तीसरे दिन इस बदबूदार माहौल में लगता है अभ्यस्त हो रहा हूँ। पहले दिन तो जाने कितनी ही उल्टी की। नीम अंधेरे में टटोल के, खुद को अपनी ही गंदगी से दूर रखने की कोशिश में, कितनी बार सख़्त दीवारों से टकराकर चोट खाई ।चीखने की कोशिश भी की। लेकिन,सब बेकार । आख़िर सुनेगा भी कौन ?
एक-एक पल सदियों सा गुज़र रहा है और बीती जिंदगी पल में गुजर गई सी...