हमारा ख़ुद में विश्वास
विश्वास आख़िर ये विश्वास है क्या?क्या है इसकी परिभाषा और क्या है इसकी आशा। क्या य़ह दूसरों पर ज़्यादा करना चाहिए या ख़ुद पर आज़माना चाहिए बस इसी विषय पर मेरी कलम मुझे लिखने के लिए उकसाती है, य़ह विश्वास की परिभाषा समझते समझते आती है। जब हम किसी पर हद्द से ज़्यादा विश्वास करने लगते हैं अक्सर वही आपके साथ विश्वासघात कर बैठता है। मैं य़ह नहीं कहती आप किसी पर विश्वास ही मत कीजिये। हाँ विश्वास कीजिये मगर ख़ुद पर सबसे ज़्यादा विश्वास कीजिये। क्यूंकि जब हम ख़ुद पर ही विश्वास नहीं करते तो भगवान भी हमारी बात नहीं सुनते। अच्छा एक उदाहरण लीजिये उदाहरण क्या आप करके ही देख लीजिये। हम भगवान के सामने 24 घण्टे बैठकर एक ही चीज़ माँग रहे हैं और मन में संदेह का घेरा भी है कि अगर मेरा ये काम नहीं हुआ। तो तुम चाहे जितना मर्जी पूजा पाठ कितने तीर्थ दुनिया भर के जतन कर लो,अगर मन में पूरी शिद्दत से विश्वास नहीं किया तो काम नहीं बन पाएगा दूसरी ओर तुम भगवान से कुछ नहीं माँग रहे कोई उपवास कोई पूजा कोई तीर्थ नहीं कर रहे बस सिर्फ़ लगन से प्रयास और ख़ुद पर 100 % विश्वास य़ह कर रहे हो तो तुम्हारे काम को होने से कोई नहीं रोक सकता। तो अब समझे य़ह किसका विश्वास काम करता है। जब हम भगवान की पूजा अर्चना इस भाव से करते हैं और अपने मन में 100 %य़ह सोच लेते हैं कि अब तो मेरा काम पक्का बन जायेगा। जानते हो उस वक्त भी तुम्हारा वह Believe ही काम कर रहा होता है बस तुम्हें ऐसा लगता है कि य़ह भगवान ने किया, हाँ भगवान ने किया लेकिन कब?जब तुमने य़ह विश्वास किया कि मेरा काम ज़रुर बन जाएगा चाहे फ़िर तुमने भगवान का सहारा लेकर ही क्यूँ ना य़ह विश्वास किया हो बात महज इतनी है कि हमारा ख़ुद का Believe ज़्यादा काम करता है, बाकी सब उसके बाद मायने रखता है। thank you so much मुझे पढ़ने के लिए। 🙏