...

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आतुर।
वह अंधेरे की ओट की छांव सी
पूर्णिमा की रात के गांव सी
शीतल कोमल मृदुल
चौखट की ओट से झांकती
चंचल अनुरक्त आतुर
लिबास संग ओढी हुई लज्जा
चौखट के पीछे से खिलखिलाती
हर बात पर मजाक करती
पर सामने न आती
घुंघरूओं की छम छम
चूड़ियों की खन खन
भीनी भीनी सी खुशबू
और मन में सन सन
हवा की हल्की सी छूअन
इस पार से उस पार की
दुरियां हो जैसे घटाती
हर क्षण जैसे
सदियों सा प्रतीत होता हुआ
एक नज़र देखने के खातिर
व्याकुल मन
रस्मों की चौखट
और मर्यादा के दायरे
सुखद सुंदर और आतुर।

पहले कितना कुछ विधी विवाह में हुआ करता था।
ये रस्में रिश्तों के महत्व के साथ, उनकी खूबसूरती भी दर्शातीं हैं।


शाम फलक पर चढती रही
घड़ियां मिलन की बढ़ती रही
वो आ गए महबूब तेरे
और तू है कि अनवरत बस सजती रही।




जारी








© geetanjali