...

19 views

ओह, मूल्य गिर गए!
“भाई साहब, दुनिया भर में महंगाई बढ़ रही है। हालात बहुत खराब है। अर्थव्यवस्था का हाल बहुत बुरा है। हमारा रूपया भी बहुत नीचे स्तर तक गिर गया है।”, चाय की टपरी पर एक अधेड़ उम्र के साहब ने अपना ज्ञान पुरज़ोर तरीके से दोस्तों से सांझा किया।

टपरी के पास ही एक जूता गांठने वाला बैठा जूते गांठ रहा था। अचानक बोल पड़ा, “रूपया गिरता है तो गिर जाए मगर इंसान का स्तर नहीं गिरना चाहिए।”

सूटेड-बूटेड पढ़े-लिखे बाबू मुड़कर कुछ हैरानी से और कुछ प्रशंसनीय दृष्टि देखने लगे! लाख टके की बात कह डाली एक जूते गांठने वाले व्यक्ति ने।

वाकई रूपये की कीमत तो बढ़ती या गिरती रहती है किंतु इंसान को गिरना नहीं चाहिए। न अपने ज़मीर की नज़रों में और न दुनिया की नज़रों में। और इंसानी मूल्य तो बिल्कुल ही नहीं गिरने चाहिए क्योंकि उन पर ही तो सामाजिक ताना-बाना टिका है।

इंसानी मूल्य तो तब भी थे जब मुद्रा का चलन नहीं था। केवल वस्तु-विनिमय प्रणाली (Barter system) चलन में थी। विजयनगर राज्य के बाजारों में कीमती पत्थरों और हीरों का व्यापार होता था।शाम ढलने पर व्यापारी अपनी टोकरी को केवल एक दुपट्टे से ढंक देता था। क्या मज़ाल किसी की कि कभी चोरी हो जाए?

इस बीच अचानक मेरा ख्याल नाना पाटेकर के उस प्रसिद्ध डायलाग की ओर चला गया—
“ गिरो, गिरो, गिरो मगर उस झरने की तरह जो गिर कर भी अपनी सुन्दरता बनाए रखता है।”

लेकिन गिर कर भी जीवन मूल्यों की सुंदरता को बनाए आसान काम नहीं है। चलो, छोड़िए, क्या विषय ले बैठे?!
आप चाय पीजिए। रूपया गिर के भी जी लेगा!

—Vijay Kumar
© Truly Chambyal