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"दुनिया है इसका नाम"


जैसे ही दरवाज़े पर खट-खट हुई तो नलके के पानी-सी नम बूंदें, यादों के मटके से चूने लगीं। एक बोझ-सा मन पर, उस रोज़ पलंग से आतीं चुरपुर की आवाज़ें कुछ कम होतीं तो सुकून मिलता। अंधेरी रात में घड़ी की टिक-टिक सुनसान रास्तों पर पसरी गहरी नाउम्मीदी। उसकी आंखों की चमक से पिघलकर दुनिया का नामोंनिशान मिटने वाला हो जैसे।

कुछ देर रुकती तो उसकी बेचैनी जान पाती। रुक कर करती भी क्या? वो फूहड़ सारी उम्र उसके लालच का शिकार रही, हां वही, उसका प्रेमी! जो अनपढ़ जाहिल हो कर भी पढ़ी-लिखी पत्नी पा गया था। मुई वो थी ही ऐसी, कोई कितना भी समझाता- न जाने उस रिक्शे वाले में उसने क्या देखा।

घर से भागने की खबर सुनकर उसकी मां नंगे पैर ही सड़क पर दौड़ गयीं, वो तो उसके भाई ने जल्दी से गाड़ी निकाली और सब पुलिस चौकी पहुंचे। वहां जाकर भी शर्मिंदगी ही हुई, कदमों में गिर जाने पर भी बेटी की आंख में सील न आई। पुलिस वाले भी मन मसोसकर रह गए। आखिरकार मां-बाप को समझाया 'कि इतना मत गिरो, जब आपकी बच्ची में ममता ही नहीं है'।

ममता, हां ममता ही तो था उसका नाम। मां ने ममता को कुछ नहीं कहा पर उस दिन उसके कमरे से सारे कपड़े और गहने आंगन में निकाल फेंके। न जाने कब से इकलौती लाडली की शादी के लिए संजो रखे थे। जल गए सब, धूं-धूं करके। घर से उठते धुएं को देख, सब भाग कर आए तो उनका आंगन मुर्दाघरनुमा बेटी की शय्या से धधक रहा था।

उस दिन के बाद ममता जैसे उनके लिए मर गई और पीछे रह गई कड़वी यादें, जिन्हें वो जितना भूलने की कोशिश करते, सामने आती क्योंकि बराबर वाले घर में ही तो भागी थी ममता। जिस लड़के के रिक्शे से ट्यूशन जाया करती थी, वो ही भगा कर ले गया था। अब इसमें उसकी भी क्या गलती? प्यार होता ही निकम्मा है, जो अच्छे-अच्छों को मिट्टी में मिला दे। औकात की तराजू़ में प्यार को मापना तो गुनाह है।

अपने मायके से झांक कर देखा था, गंदे नीले कपड़ों में बदन ठीक से ढक भी नहीं पा रहा था। चिथड़ों से झांकते जख़्म उसकी तड़प ज़ाहिर कर रहे थे। पास में लेटा दूधमुंहां बच्चा, न जाने कब से भूखा होगा। सुबक कम हुई तो नींद ने अपने आगोश में ले लिया। वो अभागी इतनी भी लायक न थी कि पास में लेटे लाल को दूध पिला दे।

वही ममता, ममता कितना अच्छा और प्यारा नाम है। पर देखो, ना जाने किस जन्म का भोग था कि न मां बाप को ममता दे सकी और न अपने लाल को। देती भी कैसे? फालिस का असर पूरे शरीर पे था। अधमरी-सी पड़ी रहती। बस आंखों से अपने बच्चे पर ममता लुटाती। ससुराल वालों से भी दुत्कार ही मिली, सर्द हवाओं में भी किसी को तरस ना आया जो उसका पलंग आंगन में डाल रखा था।

अब तो मां-बाप भी नहीं है। उसके भागने की शर्मिंदगी से बेचारों ने अपना सपनों से सुंदर घर बेच दिया और कहीं दूर रहने लगे, जिससे बेटी से सामना ना हो।

इंसानियत के नाते उसे देख तो आई। पर ज़ेहन से मानों उसका चेहरा जाता ही नहीं। तुम्हारी आहट से मैं ममता की नींद से जागी। अब कर भी क्या सकते हैं "दुनिया है इसका नाम"।

© प्रज्ञा वाणी