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पहला प्यार.....या आखिरी
आज 05 सितम्बर 2006, शिक्षक दिवस, मैं भी अपने विद्यालय की और निकला, पता नही था कि आज कुछ अलग होने वाला है जिंदगी में, बस आज तो मन मे अपने गुरुजनों के प्रति सम्मान भरा था। और उनके त्याग और समर्पण को याद करते हुए स्कूल में पहुंच गया। मैं हमेशा की तरह आज भी देरी से था, क्योंकि, मैं स्कूल बस से नही आता था, उसका भाड़ा ज्यादा था इसलिये गांव की बस से आता था, जो थोड़ी देरी से आती थी । बस इतना फर्क था कि आज स्कूल की घण्टी बजी ही थी और सारे बच्चे प्रार्थना के लिये दौड़ रहे थे । मैं भी उनकी दौड़ में शामिल हो गया और किसी तरह अपनी उपस्थिति समय पर आने वाले विद्यार्थियों में दर्ज करवा दी ।
खैर, मैं भी सभी बच्चों के साथ बैठ गया और प्रार्थना प्रारम्भ होने का समय आ गया । मैं बचपन से तो सरकारी स्कूल में पढ़ा था जंहा प्रार्थना खड़े होकर होती थी, और ना कोई माइक था ना कोई लाऊड स्पीकर था, न कोई कैसेट बजती थी बस तीन लड़कियां आगे हाथ जोड़े खड़ी होकर प्रार्थना गाती और हम उनके पीछे पीछे गाते। जब दसवीं कक्षा उत्तीर्ण हए, तो पिता जी ने कहा, इस वर्ष से तुम कान्वेंट में पढोगे। मैं ठहरा देशी विद्यार्थी जिसे इंटरवल के बाद में पढ़ाई से कोई लेना देना ना था और कान्वेंट तो सभी अध्यापक पूरे टाइम पढ़ाई करवाते थे। मैंने मना किया कि पिताजी हम सरकारी में ही पढ़ लेंगे, क्यों प्राइवेट में फीस देनी, वैसे भी हमारी आर्थिक स्थिति पहले से ही बिखरी हुई है। पिताजी ने कहा, चुप रहो, तुम्हे फीस से क्या मतलब, तुम्हे सिर्फ पढ़ने से मतलब है। अब विरोध करने की तो हिम्मत हो नही सकती थी। अब पिताजी की भी क्या गलती थी मैं अपनी क्लास का टोपर था, तो उनको डर था कि कंही आगे ये बिगड़ ना जाए और आगे का जीवन बेकार ना करले। इसलिये वो कोई जोखिम उठाना नही चाहते थे। और उन्होंने सोच लिया था कि इसे कान्वेंट में ही पढ़ाना है चाहे, रात में भी मजदूरी क्यों ना करनी पड़े।
खैर, हम अब प्रार्थना के लिये बैठ गए और हर रोज की तरह 45 मिनट तक माँ सरस्वती जी की वंदना हुई और फिर कुछ हमारे स्कूल के संस्थापक और डीपी जी ने थोड़ा बहुत भाषण दिया, और आज तो शिक्षक दिवस था, कुछ बच्चे भी अपना अपना भाषण तैयार करके लाये थे, और उन बच्चों को तो मौका मिलना ही था, क्योंकि वो सारे बच्चे वंही तो पढ़ रहे थे बचपन से और अंग्रेजी बोलने में माहिर थे। और हमारे जैसे सरकारी स्कूल वाले जो किताब समझ तो सकते थे पर अंग्रेजी रोक देती थी, वही हर रोज सुबह होता था प्रार्थना में जिसमे जो सुबह सुबह अंग्रेजी में भाषण होता था वो कुछ पल्ले नही पड़ता था।
हां, डीपी सर का भाषण एकदम हिंदी में होता था, वैसे भी वो हमारी ही तरह सरकारी से पढ़े हुए थे और भारतीय थल सेना से सेवानिर्वित भी, तो उन्हें हिंदी में ही सहजता महसूस होती थी। और कभी कभी कुछ हास्यस्पद वाकया भी सुना देते थे तो उनके भाषण को बड़े प्यार से सुनते थे सभी, खासकर हमारे वर्ग वाले विद्यार्थी। काफी समय गुजर चुका था, जैसे मैने भी उप्पर की कहानी लिखने में जाया कर दिया। काफी देर से बैठे बैठे थक गए थे पर उठ तो नही सकते थे, और अपने से आगे वाले दोस्त की पीठ पर सर रखकर थोड़ा सुस्ताने लगा, तभी मेरे बगल वाली पंक्ति में वो दिखा जो जब तक के जीवन मे कभी महसूस ही नही हुआ था। देखते ही थकान तो मानो थी ही नही। एक परी, जिसकी मुस्कान की कांति के सामने चाँद भी सरमा जाए, जिसकी शीतलता ने मेरी थकान से भरी आंखों को जैसे ठंडे पानी से धूल दिया हो, और आंखे वंहा से हटने का नाम ही नही ले रही थी, अचानक आगे वाले दोस्त ने पीठ सीधी करके धक्का दिया, तो, खयाल आया कि कंही कोई और तो मुझे नही देख रहा है, और थोड़ा सम्भलकर, अपने आप को अपने सहपाठी की कमर के पीछे छुपाये हुए उसको देखने लगा। मुझे लगा शायद मैं ही उसको देख रहा हूँ, पर जब उसने मुड़कर मेरी तरफ देखा और फिर मुस्कुरायी तो एहसास हुआ कि मैं गलत था, चाहत के बादल तो वंहा भी घने है।

मैं एक गांव में पला बढ़ा था, जंहा प्रेम प्रसंग होते ना थे, और होते भी हों तो मैं उनसे अछूता था, वंहा तो सरकारी स्कूल में जितनी लड़कियां साथ पढ़ती थी, वो मेरे ही गांव की थी जिनके साथ हमारा नाता बहन भाई का था। तो लड़का लड़की के प्रेम के बारे में कुछ ज्ञान नही था। हाँ, फिल्मों ने इस क्षेत्र में थोड़ा बहुत ज्ञान वर्धन किया था जिसका प्रयोग गांव में करना मतलब, पिटाई या कहूँ कुटाई को निमंत्रण देना था। परन्तु आज समझ भी ठहर सी गयी थी और दिल ठहरने या अपने कदम रोकने को तैयार ही ना था । उसने अपनी डगर चुन ली थी पर मेरी गरीबी की समझ उसे रोकने का नाकाम प्रयास कर रही थी ।।
दिल मानने को तैयार नही और समझ डरती थी कि जिस पिताजी ने मुझे यंहा ये सोचकर पढ़ने को भेजा है कि बेटा कुछ अच्छा करेगा, और मैं भी औरों की तरह प्यार के चक्कर मे पड़ जाऊं, नही। पर, आखिरकार दिल ने समझ को बहला ही लिया, और बहले भी क्यों ना, उम्र ही ऐसी थी । बस फिर क्या था उनकी मुस्कान का जवाब मेरी मुस्कान बनने लगी। चल दिया था मैं भी प्यार के अनजान रास्ते पर जिसका ना अनुभव था और ना ही आभास। ये भी ना जानता था कि जिससे प्रेम हुआ है उसको बोलना क्या है, और कैसे ? हिम्मत का तो पता ही था कि मुझसे कुछ नही होना । पर बस चलता रहा मैं भी भी सिर्फ इसी आशा पर कि कोई नही, देखते हैं कब वो वक्त आएगा जब प्यार का इजहार हो, तब तक इस आग को लगा कर ही रखें। बुझाने को तो दिल में ही नही रहा था ।
जब ये पता चल गया कि वो मुझसे एक कक्षा पीछे है और मेरी कक्षा की ही मंजिल पर है । तो, अब तो दिल पूरी तरह से प्रेमावश में आ चुका था । और, हर रोज हर घंटे पानी पीने के बहाने कभी, मूत्र विसर्जन के बहाने उसकी कक्षा के सामने जाने लगा, और संयोग ये था कि पानी के मटके उन्ही कक्षा के सामने थे और वो और उनकी मित्र पहली बेंच पर ही बैठती थी। मेरा यकीन उन पर जब और भी अधिक होने लगा जब हर घंटे जब पानी पीने जाता और उनको देखता तो वो हर बार मुझे देखती और हल्की सी मुस्कान भी देती थी, और जब प्याऊ ही वंहा था तो कोई सन्देह भी नही कर सकता था। अब ये हर रोज होने लगा था, अब तो हर पैने पर बस उनकी ही तस्वीर दिखाई देती थी, इंतजार रहता था कि कब घंटा खत्म हो और मैं उनको देखने जाऊं। पर एक बात का यकीन नही हो रहा था कि मैं एक लड़की को हर रोज देखता हूं और वो भी मुस्कुराती है, परन्तु कोई और आशिक़ बीच मे कोई नही आया है अभी तक । सोचता की ये कैसे संभव है ? पर कहते हैं ना उप्पर वाले के घर देर है अंधेर नही, और उन्होंने वो ख्वाहिश भी पूरी कर दी । करीब एक सप्ताह गुजरा था । और वो दिन आ गया था, जिस दिन मुझे भी विरोध का सामना करना था । सच कहूं तो मैं लड़ाई दंगों से डरता था, उसका कारण ये नही था कि मैं लड़ नही सकता था या कमजोर था । पर, इसकी वजह थी किस कंही बात पिताजी को पता चली तो उनको बुरा लगेगा। और हो सकता है कुटाई भी हो जाये । पर जो होना है वो तो होना ही था ।
उस दिन जब मैं मूत्र विसर्जन करके अपने हाथ धूल रहा था, तो प्रतिद्वंद्वी का घंटा भी बज गया था । सामने खड़ा था एक मुंहबोला मित्र, कभी कभी बस में भेंट हो जाती थी, पर मैं उससे कुछ खास बातें ना करता था, क्योंकि उनके गांव का चरित्र कुछ अच्छा ना था, सुनने में आता था कि यंहा के लोग चोरी चकारी करते है । और, गुंडागर्दी भी करते हैं । डर मानलो या फिर सराफत, बस उससे कुछ खास बातें नही करता था मैं । और ऊपर से वो ठहरा सरपंच का लड़का । जब उसने बोल;



सिकंदर- तुमसे कुछ बात करनी है ।
मैं- कहो, भाई क्या बात करनी थी ।
सिकंदर- अरे यार मेरा एक मित्र है ।
मैं- हूँ... जी।
सिकंदर- वो एक लड़की से प्यार करता है ।
मैं- भाई इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ।
सिकंदर- हूँ, देख भाई, पता तो है तुझे, क्या करना है ।
मैं- भाई जब आप बताओगे ही नही तो कैसे पता मुझे, की मैं क्या कर सकता हूँ ।
सिकंदर - ऐसा है, भाई उसने बोला है कि, तुझे समझा दूँ, नही वो आपके साथ सही नही करेगा ।
मैं - भाई, आपको पता ही है, मेरा तो किसी से कोई लेना देना भी नही, फिर उसे मुझसे लड़ने की क्या जरूरत होगी ।
सिकंदर - भाई, साफ साफ बता देता हूँ, वो लड़की, जिसे तू हर रोज देखता है ।
उसी समय सिकंदर को बीच मे टोकते हुए मैने कहा- भाई मैं किस लड़की को देखता हूँ । जैसे, मैने तो किसी को देखा ही ना हो।
सिकंदर- देख भाई, मैने उसको बोल दिया है कि तू उसको नही देखेगा । अबसे तू उसे नही देखेगा।
मैं- यार, भाई लेकिन.....
उससे पहले ही वो बोला, भाई मैने बता दिया है, बाद में अगर वो रास्ते मे पिटेगा तो मुझे मत बोलना।
मैं - ठीक है भाई ।
उसके बाद में मैंने सोचा कि भाई आशिक़ी के लिये तो बापू ने यहाँ नही भेजा । उस दिन तो इश्क़ का बुखार उतर गया, पर , ये तो वो बुखार है साहब, जो दवाई से तो क्या कुटाई से भी नही उतरता ।
अगले दिन से फिर चालू । वही पानी पीने की जगह, वो ही हर घण्टे जाना और दीदार करना। देखने की हिम्मत तो कर ली थी, पर बोलने की हिम्मत नही हो पायी थी । शायद, इसीलिये सिकंदर भाई ने सोचा कि इसका कुछ नही हो सकता क्यों फालतू का लफड़ा किया । और, ना सिकंदर और ना ही उसका कोई दोस्त ने टोका कभी ।
मैं भी कान्वेंट स्कूल में कुछ अच्छा ना कर सका तो दोस्त भी मेरे जैसे ही थे, वो भी गांव वाले। पर था तो वो भी जुगाड़ी, अपना सचदेव, सब कालू बोलते थे, मैं भी कालू ही बोलता था । मैं और कालू हर रोज कैंटीन में जरूर जाते थे । वो बात अलग थी कि खाना दोनों को ही बिस्कुट थे, और मैं तो खाने के लिये भी नही जाता था, केवल उनके दीदार के लिये जाना मेरा मकसद था । क्योंकि, उनकी जो कक्षा थी वो हमारी कैंटीन के रास्ते मे थी और खिड़की से ही उनका दीदार हो जाता था या कहूँ आंखे चार हो जाती थी ।
पता नही कुछ तो चल रहा था दिल मे उन दिनों, जो इधर उधर कुछ नही दिखता था बस एक वो ही दिखती थी।
वो, सुनहरी बाल जो वो आधे बांध कर रखती थी और आधे खुले, उसके काले और सुंदर नयन, चेहरा तो मानो चांदनी हो चांद की और जो उसका पहला दीदार हुआ था तो वो श्वेत रंग के सलवार कमीज में थी बस हर जगह वही दिखती थी। आजकल तो सही कहूँ तो फिल्मी सा हो रहा था सबकुछ । मैने सुना था कि जब प्यार हो जाता है तो पढ़ाई में मन नही लगता, परीक्षाओं का परिणाम तो मेरा भी कुछ इसी तरफ इशारा कर रहा था। पर अब तो कुछ हाथ मे ना था तीर तो कमान से छूट चुका था । उस वक्त तो यही लग रहा था कि लगा भी निशाने पर ही है ।
इसी तरह कुछ दिन बीत चुके थे, हर रोज पानी पीने जाना उसको देखना, कैंटीन आते जाते, मतलब की कोई मौका उसको देखने का नही छोड़ा । और हर चीज सफलता की तरफ इशारा कर रही थी । और धीरे धीरे तो यकीन पक्का होता जा रहा था । क्योंकि, जिस जगह पर म ट्यूशन जाता था उसने भी वंही जॉइन कर लिया । अब जब उसका ट्यूशन छूटता तो मेरा शुरू होता और सिर्फ एक विषय के ट्यूशन की बात नही थी, जहां मैं गणित पढ़ने जाता था वहीं वो भी जीव विज्ञान पढ़ने जाती थी, और जहां मैं chemistry पढ़ने जाता था वहां भी उसे पाता था, लगने लगा कि थी वो मेरे लिये ही वहां आती है ।
करीब एक महीना निकल चुका था अक्टूबर के शुरुआत के दिन आ गए थे । और अचानक कुछ बदल गया जिसका मुझे अंदाजा भी न था । आज अपना कालू बोला मैं तो घर जा रहा हूँ मेरी तबियत खराब है, उसका ये महीने तीन चार बार का काम था ऐसे ही बहाने बनाकर स्कूल से गायब होने का । उस दिन मैंने उसको मनाने की कोशिश की पर कालू ने पक्की ठाकान ली थी कि आज तो स्कूल से जाना ही है, पता नही उसे मूवी देखने का शौक था या स्कूल में अध्यापकों का चेहरा कम देखने का। वो चला गया और मैं अकेला रह गया था आज, कहते हैं कि इंद्रियां आपको कुछ गलत छपने का एहसास पहले ही करा देती हैं । मैं भी थोड़ा बेचैन सा था कुछ अच्छा नही लग रहा था और एक अजीब सा डर लग रहा था उस दिन पता नही क्या हुआ था । इंटरवल तक वही रोज का नियमबद्ध पानी पीने जाना और उसको देखना चला। पर, जैसे ही इंटरवल हुआ तो कुछ अजीब लगने लगा कि नही जाना कैंटीन पर दिल था कि रुकना भी नही चाहता था शायद ऊपरवाले को यही करना था और कैंटीन के लिये निकल ही पड़ा । आज उनके तेवर कुछ बदले बदले बदले से लग रहे थे । प्रतिभा यादव, नाम था उसका, यही नाम है उसका ये भी बहुत सालों बाद सिद्ध हुआ । पर नाम का पता उसी समय चल गया था । इस काम के लिये तो कालू ने अपनी जान लगा दी थी और उसने पता कर ही लिया । खैर उसने बताया नही की कैसे कैसे पता चला है नाम का ।
हां तो मैं बता रहा था कि, उस दिन हुआ क्या ? आज भी याद करता हूँ तो दुखी सा हो जाता हूँ । सोचता हूँ कि मैंने कुछ गलत किया था या मैने कुछ किया नही वो गलत था ? मैंने कभी उसको अपने प्यार का इजहार नही किया था, इजहार तो बहुत बड़ी बात है मैने तो कभी उसे हाय हैल्लो तक नही कहा था । हुआ ये था कि, उस दिन भी मैं हर रोज की तरह मैं इंटरवल में कैंटीन की गया और बिस्कुट लिए पर खाने का मन नही हुआ और उनको कचरे में डालकर अपनी कक्षा की तरफ बढ़ा तो देखा की प्रतिभा प्रतिभा आज हमारी शरीरिक शिक्षा की अध्यापिका (जो हमारे स्कूल की सबसे सुंदर और साधारण मैम थी उनके लिये मन में बहुत सम्मान था हाँ वो हमें नही पढ़ाती थी तो मैं उनका नाम भी नही जानता था) से कुछ बात कर रही और मेरी तरफ इशारा कर रही थी, उसी समय मैं समझ गया था कि कुछ तो गड़बड़ है, पर होना तो वही था जो उसने रचा रखा था । लेकिन उस दिन मैं उस बाधा को टाल सकता था । पर मेरी समझ उस समय कुछ आदेश नही दे पा रही थी । मैं अपनी कक्षा की तरफ के रास्ते छोड़ दिया गयाऔर सीधे टॉयलेट की तरफ चल दिया जिस तरफ प्रतिभा और मैम खड़ी थी । मुझे लग रहा था कि मैंने कुछ गलत तो नही किया फिर डर किस बात का । और जैसे मैं टॉयलेट से वापस आ रहा था तो घंटी की आवाज आई और सभी अपनी अपनी कक्षाओं में जाने के लिये दौड़ने लगे । मैं भी वंहा से निकलने लगा, तो वंही मैम ने मुझे रुकने के लिया कहा । अब मेरा शक यकीन में बदल गया कि प्रतिभा मेरे ही बारे में बात कर रही थी ।
मैम - आप ऐसा क्यों कर रहे हो ?
मैं - मैम, मैं क्या कैसा कर रहा हूँ ?
मैम - जो तुम्हे पता है ।
मैं - मुझे तो कुछ नही पता आप क्या बात कर रहे हो ?
मैम - देखो बेटा, क्यों अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो ?
मैं - मैम, मैने ऐसा कर क्या दिया ?
मैम - सितम्बर की परीक्षाओं में क्या परिणाम रहा था तुम्हारा ?
मैं - मैम, एक विषय मे फैल हो गया ।
मैम - इसी लिये कह रही हूँ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो, इन कामो में कुछ नही रखा है ।
मैं - मैम, पर.....
मैम - चुप रहो, मुझे भी पता है और तुझे भी, no more discussion अब जाओ अपनी कक्षा में आगे से ध्यान रखना ।
मैं - जी मैम ।
और मैं वंहा से ये सोचता निकल गया कि क्या किसी को देखना भी पाप है? क्या किसी से प्यार करना भी गुनाह है ? या प्यार का इजहार करना गुनाह है ?
इन सवालों का जवाब तो मुझे मिल नही पाया पर, उस दिन के बाद स्कूल जाना बंद कर दिया सिर्फ ट्यूशन करने जाता था । और वहां जब वो दिखती थी तो समझ नही आता था कि किस भावना का एहसास होना चाहिये ? उसे देखना चाहिये या नही ? यहाँ तो कोई रोकने वाला भी ना था । पर शायद अब ऐसा लगने लगा था कि अपने दिल को रोक कर ही रखना चाहिये और ये स्कूल जाकर या ट्यूशन पर जाकर नही कर सकता था । इसीलिये मैने वो दोनों रास्ते ही छोड़ दिये । बस अब अपने सपनो में ही उसे देखा करता था, और प्यार का इजहार भी ।


🖋️SK
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